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Saturday, December 9, 2017

स्कूल वाला प्यार

#कहानी #Story

#स्कूल_वाला_प्यार

शादियों का सीजन शुरू हो चुका है, मन मे एक उम्मीद सी थी शायद इस बार हम भी दूल्हा बन जाएंगे,

घर की हालत बहुत अच्छी ना थी, किसी से छिपा ना था किन परिस्थियों से उबरे है, एक समय था दो कमरों के कच्चे घर मे बरसात के नाम से ही पसीने छूट जाते थे, कच्चा मिट्टी का घर, जर्जर हो चुकी लकड़ी बाँस पुराल की छत अब गिल्ली मिट्टी का वजन सहने में अमर्थता जता चुकी थी, पुरानी कड़िया जवाब दे चुकी थी जिन्हें किसी तरह टेक लगाकर ढांढस बंधाया गया था,

यू तो हवलदार हुए चार साल बीत गए, लेकिन अबतक शादी का कोई विचार मन मे ना था, घर के हालात अभी कुछ सोचने की मोहलत ही कहाँ देते थे लेकिन इन चार साल में पाई पाई जोड़ कर क्या कुछ नही किया, बचपन की यादे समेटे पुराने घर को तोड़कर नया मकान बना दिया है, लेकिन अभी इस मकान के घर होने में कुछ कमी सी है,

कहने को चार कमरों का पक्का हवादार मकान है, लेकिन रहने में लिए केवल बूढ़े माँ बाप और एक छोटा भाई, माँ बूढ़ी हो चली थी, पिताजी के जोड़ो में भी दर्द रहने लगा था, गाँव घेर के ज्यादातर काम मे छोटा हाथ बटाने लगा था, लेकिन उसकी अपनी पढ़ाई
भी थी पिताजी आज भी उसे काम नही बताना चाहते,  वैसे भी इस बार बोर्ड परीक्षा है,

जब से नया मकान बनाया था  यार रिश्तेदार शादी के प्रस्ताव लाने लगे थे, इस बार दीवाली की छुट्टी आया तो माँ बापू की पसन्द से एक रिश्ता स्वीकार कर लिया, शादी की तैयारी शुरू हो चुकी थी, साफ सफाई के क्रम में पुरानी किताबो की गठरी संभाल रहा था, गठरी से कुछ  पुरानी किताबे निकली, जिनके अंतिम पृष्ठ पर एक नाम बार बार लिख कर बार बार काटा गया था, किसी और के लिए उसे पढ़ या समझ पाना असंभव था, लेकिन स्याही के वो गहरे रंग एक मासूम मुस्कान बिखेरने के लिए काफी थे,

मुस्काते पन्ने पलटते कब यादों के फ़्लैशबैक में पहुंचा इसे केवल महसूस किया जा सकता है,

मुस्कान की वजह तो समझ ही गए होंगे, नाम लिख कर बस उजागर नही करना चाहता, इस मुस्कान के पीछे जो चेहरा था उसमे कुछ तो खास था, साधारण गेहुआ रंग, औसत नाक नक्श, इकहरा बदन बाहर से देखने पर सब कुछ तो साधारण था.... बस असाधारण था उसका मौन... उसकी मुस्कान... आज फिर वो चेहरा नजर आ रहा है, भूल गया था जिसे जिंदगी की भाग दौड़ में, याद आया भी तो किस मोड़ पर, सामने दोराहा है... कुछ भी तो नही मालूम आज उसके बारे में.... कहाँ है किसी है क्या है....

यादों के सुनहरे पन्ने पलटते जा रहे है, जैसे बेपरवाह हवा किसी लावारिश डायरी को पढ़े जा रही हो....

डायरी से याद आया उन दिनों मैं भी डायरी लिखा करता था, शायद वो डायरी भी इसी गठरी में है आजकल, तुरंत वो किताब जमीन में रख मेरे हाथ वो डायरी टटोलने लगे गठरी में, जिसके साथ उसकी पहली याद, पहली मुलाकात जुड़ी है... साथ पढ़ते हुए हमें एक महीने से ज्यादा हो चुका था, नाम से एक दूसरे को जानते भी थे लेकिन कभी कोई विचार नही आया था किसी भी तरह का, बातचीत बिल्कुल नही होती थी हमारे बीच,

खैर डायरी के कवर के स्पर्श से ही हाथ ठिठक गया, ठीक उसी तरह जैसे उसके पहले स्पर्श से ठिठका था, मौका था 15 अगस्त स्वतंत्रता दिवस का, निबंध लेखन प्रतियोगिता के विजेताओं को पुरस्कार वितरण का... हम दोनों ने क्रमश प्रथम एवं द्वितीय स्थान प्राप्त किया था, पुरुस्कार लेने के बाद उसे खोलने की जल्दबाजी में थे दोनो ही,मैने चहक कर कहा मुझे तो डायरी मिली है जैसे ही मुड़ा मेरे पीछे वो खड़ी थी उसके हाथ से डायरी वाला हाथ टकराया और मैं ठिठक गया, सारा उत्साह एक दम शांत.... एक क्षण के लिए नजरे मिली, कोई शिकवा कोई शिकायत नही अगले ही क्षण दोनो वापस अपनी रामधुन में था

इसके बाद से मैं या कहें हम दोनों एक दूसरे को नोटिस करने लगे थे, उसका सदैव धारण किया जाने वाला मौन मुझे घनघोर रहस्यमयी लगने लगा था, क्लास में मेरा ज्यादातर समय उसे चोरी चुपके निहारने में  गुजरने लगा था, मैं बिल्कुल नही चाहता था कि किसी को भी नए नवेले प्रेम के बारे में तनिक भनक भी लगे,

शायद सामने वाली पार्टी को भी इस बात का अहसास हो चुका था जिसका प्रमाण उसने कई बार अपनी मोहक मुस्कान से दिया था, क्लास में ज्यादातर शांत सा रहने वाला मैं अब उसकी हँसी के लिए उलजुलूल हरकते करने लगा था, जिस कारण एक दो बार मार/ डांट भी  खानी पड़ी,

अब छोटे मोटे काम के बहानो से बाते होने लगी थी, एकेले में या चोरी छिपे मुस्कुराहटों का आदान प्रदान भी खूब चलता था, अब कई बार मजाकिया लहजे में प्रेम के इजहार वाले द्विअर्थी संवाद भी होने लगा था,
छुट्टी के बाद अक्सर साथ ही जाना होने लगा था, हमारी तीन दोस्तो की मंडली हुआ करती थी जो अक्सर उसकी मंडली के आस पास ही भटकती पाई जाती थी,

प्रैक्टिकल फाइलों के आदान प्रदान, नोट्स शेयर करने के बहाने एक दो बार मैंने अपने प्रेम का इजहार करते कुछ शब्द भी भेंट किये, लेकिन जवाब हमेशा उसका वो रहस्यमयी मौन ही रहा,

दिल की बेचैनी बढ़ती जा रही थी, स्कूल के बाद भी देखने की चाहत हमेशा सताने लगी थी, थोड़ा प्रयास किया तो उसके घर के पास एक ट्यूशन का पता चला, उन ट्यूशन वाले भैया जी हमने अपना गुरु भी बना लिया,
अब रोज शाम चार बजे उसकी गली पर ट्यूशन पढ़ने जाने लगे, शुरुवाती दो तीन दिन दर्शन ना होने पर हमने क्लास में अपने ट्यूशन का एलान तक कर दिया,
आज उम्मीद कुछ ज्यादा थी इसीलिए आज समय से पहले ही निकल लिए ट्यूशन के लिए, खैर पौने चार बजे ही हम उसकी गली के नुक्कड़ पर थे, नुक्कड़ पर लगे नल पर कभी पैर धोते कभी मुँह, कभी पानी पीते यो कभी बाल भिगाते हमने 10 मिनट बर्बाद कर दिए,

आखिरकार हमारी मेहनत सफल हुई, चार बजने में ठीक चार मिनट पहले वो बाल्टी लेकर अपने घर से निकली, उसे देखते ही हमारी झूठी हँसी भी गायब हो चुकी थी, उसकी चाल में आज एक अजीब सी मस्ती थी जो आज तक हमने महसूस नही की थी, चेहरे पर उसके वो रहस्मयी मौन तो था लेकिन आज उसके गालों से अजीब सी  लाली छिटक रही थी, नल के पास से होते हुए वो अपने घेर को चली गयी हम भी अपनी किताबे पकड़ ट्यूशन पहुँचे, अब ये रोज का सिलसिला बन चला था,

कब तक यूँही मन बहलाते, दोस्तो के साथ कि वजह से बात नही हो पाती थी तो हमने एकेले जाने का निर्णय लिया, अब अकेले नल पर खड़े होकर इंतज़ार की हिम्मत ना होती थी, फिर तीन चार दिन यूँही हिम्मत जुटाते गुजरे एक दिन उसे आते देख मैं नल पर ही उसका इंतजार करने लगा, वो पास आई मैं पानी पीने के लियव बढ़ा वो बिना कुछ कहे नल चलाने लगी, पानी पिया और दोनो अपने रास्तो पर बढ़ चले,

अब तक दोस्तो को इस प्रेम खिचड़ी का पता चल चुका था, उन्होंने चिढ़ाना शुरू कर दिया था कई बार तो उसे भाभी कहकर भी बुला देते और वो पगली कभी घूरकर आंखे दिखा देती, कभी मुस्कुराकर टाल देती,  हमारी प्रेम की गाड़ी पटरी पर तो आ चुकी थी लेकिन जाना कहाँ है ये किसी को मालूम ना था,

स्कूल में हमारा अंतिम छमाही चल रहा था, पढ़ाई लगभग बन्द हो चुकी थी बोर्ड की तैयारी के चक्कर मे ज्यादातर बच्चो ने क्लास आना बन्द कर दिया था,

हम जैसे इश्क़ के मरीज लोग अभी भी स्कूल के चक्कर लगा रहे थे, मस्तिया और लापरवाही अपने चरम पर थी, दूसरी तरफ पढ़ाई भी लगातार जारी थी, फिजिक्स, केमेस्ट्री से लेकर ट्रिग्नोमेट्री, स्टेटिस से डायनामिक्स, अलजेब्रा से लेकर सब कुछ रिवीजन हो चुका था सिवाए कैलकुलस के, कैलकुलस में हमारी गाड़ी d/dx यानी डिफेंसियसन से आगे ना बढ़ सकी, स्कूल के इस अंतिम दौर में एक सेकंड कनेक्शन के चक्कर मे हमारा रिश्ता डिफ्रेंसिएट हो गया, और ईगो वस हम उसे वापस इंटीग्रेट करने की कोशिस भी ना कर पाए, जैसे जैसे रिश्ते में दूरी आई स्कूल से भी दूरी बनती चली गई,

कुछ दिन की दूरी और अकेलेपन ने दिमाग ठिकाने पर ला दिया, अब मिलने की तड़प बढ़ने लगी थी, अब ट्यूशन जाने के समय और बाल्टी लेकर घेर में आने के समय मे भी कोई मेल ना बचा था,

हालत अभिमन्यु जैसी हो गयी थी जो चक्रव्यूह में घुसना तो जानता था लेकिन बाहर कैसे निकला जाए इसका ज्ञान ना था, समय का चक्र चलता गया बोर्ड एग्जाम शुरू हो गए, नाम पास पास होने की वजह से सीट एक ही कमरे में पड़ी थी, इससे स्थिति और भी विकट हो चली थी, दो महीने के इंतज़ार के बाद दर्शन तो हुए लेकिन मौन अभी तक जारी था,  जिस तरह पानी को देखकर प्यास बढ़ती जाती है ठीक वैसे ही मेरी हालत थी, देख तो रोज रहा था लेकिन बात नही कर सकता था,  आखिर कब तक इंतजार करता अब निश्चय कर लिया था कि अंतिम पेपर वाले दिन ये मौन तोड़ देना है,

अंतिम पेपर English !! का था,  नकल धड़ल्ले से चल रही थी, अव्यवस्था, अनुशासनहीनता और शोर शराबे का बोल बाला था, अंतिम समय मे पेपर लिखने की धुन में मैं उसे भूल चुका था, जब एग्जाम शीट सबमिट करने की बारी आई वो एग्जाम हाल से बाहर जा चुकी थी, जल्दी बाजी शीट लगभग फेंकते हुए मैं बाहर की तरफ दौड़ा, बरामदे में भी उसका कहीं कोई पता ना था, बिना मौजे पहने ही जूते फंसाते हुए मैन गेट की टरफ लपका, गेट खुले हुए समय बीत चुका था इसका अंदाजा वहां भीड़ को ना देख कर हो गया था, गेट तक पहुंचने तक उम्मीद धुंधली हो चुकी थी, शायद वो जा चुकी थी .... हमेशा हमेशा के लिए....

फ्लैशबैक चल ही रहा था अपनी रफ्तार से, माँ ने लगभग चिल्लाते हुए कहा क्या बुत बना बैठा है आधे घंटे से, मैं दिवास्वप्न की दुनिया से बाहर आया, डायरी ट्यूशन के दिनों की तरह जीन्स में पीछे घुसेड़ते हुए आज फिर निकल पड़ा था गली के नुक्कड़ वाले उसी नल पर पानी पीने के लिए.....

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