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Saturday, December 9, 2017

स्कूल वाला प्यार

#कहानी #Story

#स्कूल_वाला_प्यार

शादियों का सीजन शुरू हो चुका है, मन मे एक उम्मीद सी थी शायद इस बार हम भी दूल्हा बन जाएंगे,

घर की हालत बहुत अच्छी ना थी, किसी से छिपा ना था किन परिस्थियों से उबरे है, एक समय था दो कमरों के कच्चे घर मे बरसात के नाम से ही पसीने छूट जाते थे, कच्चा मिट्टी का घर, जर्जर हो चुकी लकड़ी बाँस पुराल की छत अब गिल्ली मिट्टी का वजन सहने में अमर्थता जता चुकी थी, पुरानी कड़िया जवाब दे चुकी थी जिन्हें किसी तरह टेक लगाकर ढांढस बंधाया गया था,

यू तो हवलदार हुए चार साल बीत गए, लेकिन अबतक शादी का कोई विचार मन मे ना था, घर के हालात अभी कुछ सोचने की मोहलत ही कहाँ देते थे लेकिन इन चार साल में पाई पाई जोड़ कर क्या कुछ नही किया, बचपन की यादे समेटे पुराने घर को तोड़कर नया मकान बना दिया है, लेकिन अभी इस मकान के घर होने में कुछ कमी सी है,

कहने को चार कमरों का पक्का हवादार मकान है, लेकिन रहने में लिए केवल बूढ़े माँ बाप और एक छोटा भाई, माँ बूढ़ी हो चली थी, पिताजी के जोड़ो में भी दर्द रहने लगा था, गाँव घेर के ज्यादातर काम मे छोटा हाथ बटाने लगा था, लेकिन उसकी अपनी पढ़ाई
भी थी पिताजी आज भी उसे काम नही बताना चाहते,  वैसे भी इस बार बोर्ड परीक्षा है,

जब से नया मकान बनाया था  यार रिश्तेदार शादी के प्रस्ताव लाने लगे थे, इस बार दीवाली की छुट्टी आया तो माँ बापू की पसन्द से एक रिश्ता स्वीकार कर लिया, शादी की तैयारी शुरू हो चुकी थी, साफ सफाई के क्रम में पुरानी किताबो की गठरी संभाल रहा था, गठरी से कुछ  पुरानी किताबे निकली, जिनके अंतिम पृष्ठ पर एक नाम बार बार लिख कर बार बार काटा गया था, किसी और के लिए उसे पढ़ या समझ पाना असंभव था, लेकिन स्याही के वो गहरे रंग एक मासूम मुस्कान बिखेरने के लिए काफी थे,

मुस्काते पन्ने पलटते कब यादों के फ़्लैशबैक में पहुंचा इसे केवल महसूस किया जा सकता है,

मुस्कान की वजह तो समझ ही गए होंगे, नाम लिख कर बस उजागर नही करना चाहता, इस मुस्कान के पीछे जो चेहरा था उसमे कुछ तो खास था, साधारण गेहुआ रंग, औसत नाक नक्श, इकहरा बदन बाहर से देखने पर सब कुछ तो साधारण था.... बस असाधारण था उसका मौन... उसकी मुस्कान... आज फिर वो चेहरा नजर आ रहा है, भूल गया था जिसे जिंदगी की भाग दौड़ में, याद आया भी तो किस मोड़ पर, सामने दोराहा है... कुछ भी तो नही मालूम आज उसके बारे में.... कहाँ है किसी है क्या है....

यादों के सुनहरे पन्ने पलटते जा रहे है, जैसे बेपरवाह हवा किसी लावारिश डायरी को पढ़े जा रही हो....

डायरी से याद आया उन दिनों मैं भी डायरी लिखा करता था, शायद वो डायरी भी इसी गठरी में है आजकल, तुरंत वो किताब जमीन में रख मेरे हाथ वो डायरी टटोलने लगे गठरी में, जिसके साथ उसकी पहली याद, पहली मुलाकात जुड़ी है... साथ पढ़ते हुए हमें एक महीने से ज्यादा हो चुका था, नाम से एक दूसरे को जानते भी थे लेकिन कभी कोई विचार नही आया था किसी भी तरह का, बातचीत बिल्कुल नही होती थी हमारे बीच,

खैर डायरी के कवर के स्पर्श से ही हाथ ठिठक गया, ठीक उसी तरह जैसे उसके पहले स्पर्श से ठिठका था, मौका था 15 अगस्त स्वतंत्रता दिवस का, निबंध लेखन प्रतियोगिता के विजेताओं को पुरस्कार वितरण का... हम दोनों ने क्रमश प्रथम एवं द्वितीय स्थान प्राप्त किया था, पुरुस्कार लेने के बाद उसे खोलने की जल्दबाजी में थे दोनो ही,मैने चहक कर कहा मुझे तो डायरी मिली है जैसे ही मुड़ा मेरे पीछे वो खड़ी थी उसके हाथ से डायरी वाला हाथ टकराया और मैं ठिठक गया, सारा उत्साह एक दम शांत.... एक क्षण के लिए नजरे मिली, कोई शिकवा कोई शिकायत नही अगले ही क्षण दोनो वापस अपनी रामधुन में था

इसके बाद से मैं या कहें हम दोनों एक दूसरे को नोटिस करने लगे थे, उसका सदैव धारण किया जाने वाला मौन मुझे घनघोर रहस्यमयी लगने लगा था, क्लास में मेरा ज्यादातर समय उसे चोरी चुपके निहारने में  गुजरने लगा था, मैं बिल्कुल नही चाहता था कि किसी को भी नए नवेले प्रेम के बारे में तनिक भनक भी लगे,

शायद सामने वाली पार्टी को भी इस बात का अहसास हो चुका था जिसका प्रमाण उसने कई बार अपनी मोहक मुस्कान से दिया था, क्लास में ज्यादातर शांत सा रहने वाला मैं अब उसकी हँसी के लिए उलजुलूल हरकते करने लगा था, जिस कारण एक दो बार मार/ डांट भी  खानी पड़ी,

अब छोटे मोटे काम के बहानो से बाते होने लगी थी, एकेले में या चोरी छिपे मुस्कुराहटों का आदान प्रदान भी खूब चलता था, अब कई बार मजाकिया लहजे में प्रेम के इजहार वाले द्विअर्थी संवाद भी होने लगा था,
छुट्टी के बाद अक्सर साथ ही जाना होने लगा था, हमारी तीन दोस्तो की मंडली हुआ करती थी जो अक्सर उसकी मंडली के आस पास ही भटकती पाई जाती थी,

प्रैक्टिकल फाइलों के आदान प्रदान, नोट्स शेयर करने के बहाने एक दो बार मैंने अपने प्रेम का इजहार करते कुछ शब्द भी भेंट किये, लेकिन जवाब हमेशा उसका वो रहस्यमयी मौन ही रहा,

दिल की बेचैनी बढ़ती जा रही थी, स्कूल के बाद भी देखने की चाहत हमेशा सताने लगी थी, थोड़ा प्रयास किया तो उसके घर के पास एक ट्यूशन का पता चला, उन ट्यूशन वाले भैया जी हमने अपना गुरु भी बना लिया,
अब रोज शाम चार बजे उसकी गली पर ट्यूशन पढ़ने जाने लगे, शुरुवाती दो तीन दिन दर्शन ना होने पर हमने क्लास में अपने ट्यूशन का एलान तक कर दिया,
आज उम्मीद कुछ ज्यादा थी इसीलिए आज समय से पहले ही निकल लिए ट्यूशन के लिए, खैर पौने चार बजे ही हम उसकी गली के नुक्कड़ पर थे, नुक्कड़ पर लगे नल पर कभी पैर धोते कभी मुँह, कभी पानी पीते यो कभी बाल भिगाते हमने 10 मिनट बर्बाद कर दिए,

आखिरकार हमारी मेहनत सफल हुई, चार बजने में ठीक चार मिनट पहले वो बाल्टी लेकर अपने घर से निकली, उसे देखते ही हमारी झूठी हँसी भी गायब हो चुकी थी, उसकी चाल में आज एक अजीब सी मस्ती थी जो आज तक हमने महसूस नही की थी, चेहरे पर उसके वो रहस्मयी मौन तो था लेकिन आज उसके गालों से अजीब सी  लाली छिटक रही थी, नल के पास से होते हुए वो अपने घेर को चली गयी हम भी अपनी किताबे पकड़ ट्यूशन पहुँचे, अब ये रोज का सिलसिला बन चला था,

कब तक यूँही मन बहलाते, दोस्तो के साथ कि वजह से बात नही हो पाती थी तो हमने एकेले जाने का निर्णय लिया, अब अकेले नल पर खड़े होकर इंतज़ार की हिम्मत ना होती थी, फिर तीन चार दिन यूँही हिम्मत जुटाते गुजरे एक दिन उसे आते देख मैं नल पर ही उसका इंतजार करने लगा, वो पास आई मैं पानी पीने के लियव बढ़ा वो बिना कुछ कहे नल चलाने लगी, पानी पिया और दोनो अपने रास्तो पर बढ़ चले,

अब तक दोस्तो को इस प्रेम खिचड़ी का पता चल चुका था, उन्होंने चिढ़ाना शुरू कर दिया था कई बार तो उसे भाभी कहकर भी बुला देते और वो पगली कभी घूरकर आंखे दिखा देती, कभी मुस्कुराकर टाल देती,  हमारी प्रेम की गाड़ी पटरी पर तो आ चुकी थी लेकिन जाना कहाँ है ये किसी को मालूम ना था,

स्कूल में हमारा अंतिम छमाही चल रहा था, पढ़ाई लगभग बन्द हो चुकी थी बोर्ड की तैयारी के चक्कर मे ज्यादातर बच्चो ने क्लास आना बन्द कर दिया था,

हम जैसे इश्क़ के मरीज लोग अभी भी स्कूल के चक्कर लगा रहे थे, मस्तिया और लापरवाही अपने चरम पर थी, दूसरी तरफ पढ़ाई भी लगातार जारी थी, फिजिक्स, केमेस्ट्री से लेकर ट्रिग्नोमेट्री, स्टेटिस से डायनामिक्स, अलजेब्रा से लेकर सब कुछ रिवीजन हो चुका था सिवाए कैलकुलस के, कैलकुलस में हमारी गाड़ी d/dx यानी डिफेंसियसन से आगे ना बढ़ सकी, स्कूल के इस अंतिम दौर में एक सेकंड कनेक्शन के चक्कर मे हमारा रिश्ता डिफ्रेंसिएट हो गया, और ईगो वस हम उसे वापस इंटीग्रेट करने की कोशिस भी ना कर पाए, जैसे जैसे रिश्ते में दूरी आई स्कूल से भी दूरी बनती चली गई,

कुछ दिन की दूरी और अकेलेपन ने दिमाग ठिकाने पर ला दिया, अब मिलने की तड़प बढ़ने लगी थी, अब ट्यूशन जाने के समय और बाल्टी लेकर घेर में आने के समय मे भी कोई मेल ना बचा था,

हालत अभिमन्यु जैसी हो गयी थी जो चक्रव्यूह में घुसना तो जानता था लेकिन बाहर कैसे निकला जाए इसका ज्ञान ना था, समय का चक्र चलता गया बोर्ड एग्जाम शुरू हो गए, नाम पास पास होने की वजह से सीट एक ही कमरे में पड़ी थी, इससे स्थिति और भी विकट हो चली थी, दो महीने के इंतज़ार के बाद दर्शन तो हुए लेकिन मौन अभी तक जारी था,  जिस तरह पानी को देखकर प्यास बढ़ती जाती है ठीक वैसे ही मेरी हालत थी, देख तो रोज रहा था लेकिन बात नही कर सकता था,  आखिर कब तक इंतजार करता अब निश्चय कर लिया था कि अंतिम पेपर वाले दिन ये मौन तोड़ देना है,

अंतिम पेपर English !! का था,  नकल धड़ल्ले से चल रही थी, अव्यवस्था, अनुशासनहीनता और शोर शराबे का बोल बाला था, अंतिम समय मे पेपर लिखने की धुन में मैं उसे भूल चुका था, जब एग्जाम शीट सबमिट करने की बारी आई वो एग्जाम हाल से बाहर जा चुकी थी, जल्दी बाजी शीट लगभग फेंकते हुए मैं बाहर की तरफ दौड़ा, बरामदे में भी उसका कहीं कोई पता ना था, बिना मौजे पहने ही जूते फंसाते हुए मैन गेट की टरफ लपका, गेट खुले हुए समय बीत चुका था इसका अंदाजा वहां भीड़ को ना देख कर हो गया था, गेट तक पहुंचने तक उम्मीद धुंधली हो चुकी थी, शायद वो जा चुकी थी .... हमेशा हमेशा के लिए....

फ्लैशबैक चल ही रहा था अपनी रफ्तार से, माँ ने लगभग चिल्लाते हुए कहा क्या बुत बना बैठा है आधे घंटे से, मैं दिवास्वप्न की दुनिया से बाहर आया, डायरी ट्यूशन के दिनों की तरह जीन्स में पीछे घुसेड़ते हुए आज फिर निकल पड़ा था गली के नुक्कड़ वाले उसी नल पर पानी पीने के लिए.....

#स्कूल_वाला_प्यार

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Monday, October 2, 2017

२अक्टूबर : गाँधी या शास्त्री

आज २ अक्टूबर है, आप मे से ज्यादातर की छुट्टी होगी, लेकिन मेरी नही है आज भी ड्यूटी जाना है, रोज की तरह ट्रेन चलानी है, कुछ भाई मेरे जैसे और भी होंगे जिन्हें आज भी रोज की ही तरह अपने अपने ऑफिस जाना है काम करना है

   खैर छुट्टी किस बात की है, ये तो सबको पता ही होगा, क्या कहा आज ड्राई डे है, अबे हरामखोरो ड्राई डे की नही  गाँधी जयंती की छुट्टी है, राहुल गाँधी नही महात्मा गाँधी, सारे गाँधी राहुल गाँधी नही होते कुछ महात्मा गाँधी ओ सॉरी राष्ट्रपिता महात्मा गांधी भी होते है, ये बात नॉट करके रख लो अगली गाँधी जयंती पर पूछुंगा,

   २अक्टूबर गाँधी जयंती होती है ये तो ज्यादातर सबको पता है लेकिन २अक्टूबर को ही एक और महात्मा यानी कि श्री लाल बहादुर शास्त्री जी का भी जन्मदिवस है हम में से कितने जानते है, आज तो फिर भी बहुत लोग जानते है लेकिन कुछ वर्ष पहले तक कितने जानते थे....

   आज के दिन सोशल मीडिया २ हिस्सो में बटा होता है एक गाँधी भक्त दूसरे शास्त्री भक्त,
(स्पष्टीकरण:  यहाँ भक्त का अर्थ मोदी भक्त नही है)

   सच कहूँ तो मैंने गाँधी के बारे में अब तक जो पढ़ा है सुना है उसमें ८० प्रतिशत नकारात्मक है और बाकी २० प्रतिशत सकारात्मक, लेकिन शास्त्री जी के बारे में केवल और केवल सकारत्मक पढ़ा है, खैर ये मेरी निजी रुचि का मामला हो सकता है लेकिन नही बात उस से थोड़ी ज्यादा है, गाँधी के बारे में जो सकारात्मक पढ़ा है उसका ९० प्रतिशत सरकारी किताबे, गांधी जयंती छपने वाले लेख भाषण से मिला है बाकी  मेरी निजी दिलचस्पी के माध्यमो से, और जो नकारात्मक था वो ज्यादातर निजी तौर पर लिखा गया स्वछन्द लेखो या इतिहासकारों का था,

   यदि शास्त्री जी के बारे में बात की जाए तो मुझे उनके बारे में आज तक कुछ नकारत्मक पढ़ने सुनने को नही मिला, फिर वो क्या है की गाँधी हर जगह सहज उपलब्ध है लेकिन शास्त्री पहचान का मोहताज बनकर कोनों में दुबके से खड़े है, ऐसा कमजोर व्यक्तित्व तो बिल्कुल नही था शास्त्री जी का की उन्हें पहचान का मोहताज होना पड़े,

    आदर्शों की बात की जाए तो गांधी  का पूरा जीवन विवादों से भरा और संदेहास्पद रहा है, गाँधी ने केवल आदर्शों की बात की लेकिन शास्त्री जी ने उन्हें जिया है,
जिन आंदोलनों के लिए गाँधी को जाना जाता है उनका क्या हश्र हुआ उनमे से कितने अपने अंजाम तक पहुंचे, यदि किसी को जानकारी है तो बताए मेरी जानकारी में तो सभी बीच मे ही खत्म हुई है,

   हर काम को अधूरा छोड़ना गाँधी का गैर जिम्मेदाराना रवैया दिखाता है वहीँ शास्त्री जी ने जिस जिम्मेदारी भारत को भुखमरी से उभारा और आत्मसम्मान से जीना सिखाया वो बेमिसाल है,

  हो सकता है मैं  गांधी को समझ नही पाया हूँ लेकिन शास्त्री जी को बड़े अच्छे से समझा है, शास्त्री जी एक सुदृढ, साफ और सुलझे हुए व्यक्तित्व थे, उन्होंने कभी सादा जीवन उच्च विचार की बात नही की  वरण उसे जिया है,

   मुझे बस ये ही लगता है गांधी  को महान बनाने में  गोडसे की उन तीन गोलियों का हाथ है जिन्होंने गाँधी के मुँह से निकले "हराम" को "हे राम" लिखवा दिया,

   तुम मनाओ गाँधी जयंती हम तो अपने शास्त्री जी याद करके गर्व महसूस करते है,

पगला पंडित अतुल शर्मा गुड्डू

www.paglapandit.blogspot.com

Tuesday, August 29, 2017

माँग और आपूर्ति की देन : गुरमीत सिंह राम रहीम

अरे यार 'बाबा गुरमीत सिंह राम रहीम इंसान ' की बाकि संत या मौलवी से तुलना नही करनी चाहिए । यार आप आधार देखो ये कोई Typical संत या मौलाना  मौलवी नही जो धार्मिक ज्ञान देता हो । मौलवी की तरह कुरान की आयते पढाकर , या बाबा संत की तरह गीता का सार बताये ।

    सीधी सी बात है , सडक से उठाकर अनाथ को पाला , शिक्षा दी , कई महिलाओ के पति का नशा छुडवाया , वेश्या का धंधा करने को मजबूर लडकियो की शादी करवाई , इन सब के लिए तो राम रहीम भगवान ही होगा ना ।

    अजी विपत्ती अच्छे अच्छो को अंधा बना देती है ।  गुरमीत बाबा का बेस धर्म नही कर्म है । 10 दिन पहले तक बाबा पर कोई सवाल नही उठा रहा था ! मीडिया के लिए  तो वो Modern और Rockzstar  बाबा  ही थे ना।
     
मै गुरमीत राम रहीम  के पक्ष मे नही हूँ , उसने गलत किया है जो साबित  हुआ है , उसे सजा सही मिली है ।

   All i have to say that , dont made pre planned perception or ideology !!   , विचार बदलने मे समय नही लगता !! धर्म और आध्यात्म जरूरी भी है और जरूरत भी ।

  बस उस मानसिकता को इस कदर हावी  मत होने देना कि अन्याय के खिलाफ आवाज ना उठा सको । और कानून पर भरोसा रखिये ।

  उन  दोनो साध्वी को सलाम जिन्होने इसके लिए लडा ।
  और हाँ वही समोसा और हरी चटनी खाते रहो कृपा बनी रहेगी बाकी किसी के पास जाने की जरूरत नही पड़ेगी,

आपकी हर समस्या की हम कह कर लेंगे, निदान वही करेगा जिसे ज्ञान होगा, जो सिद्ध है वही प्रसिद्ध है
किसी भी समस्या के समाधान के लिए संपर्क करे

पगले पंडित जी रासना वाले
सिद्ध श्री श्री 2017 अतुल शर्मा - Atul Sharma
हमारी बहुत सारी शाखाए है नक्कालों से सावधान ....

Saturday, August 26, 2017

टिप्पणी वालो गिरेबान में झांको

मुझे ये नही समझ आ रहा जिस देश का प्रशासन,  कानून व्यवस्था और न्यायपालिका इतनी मजबूत हो कि  १००-२०० लोगो की भीड़ भी पुलिस और प्रशासन को जब चाहे जैसे चाहे नाको चने चबवा देती हो, वहाँ यदि ५-७ करोड़ अनुयायियों वाले किसी बाबा को सजा सुनाते समय कोर्ट के बाहर जमा लाखो लोगो की भीड़ को संभालने में ८-१० घंटे लगाकर, बिना किसी बहुत सख्त कार्यवाही या बल प्रयोग के संभाल लेती है हाँ आगजनी और तोड़फोड़ रोकने में नाकाम रही है,

इसे नाकामी कहना चाहिए या कामयाबी, ये आपके विवेक पर निर्भर करता है यदि स्वयम्भू विशेषज्ञों की माने तो यदि इस भीड़ से सख्ती से निपटती तो जिन लाशों की गिनती गिनाकर हो हल्ला मचाया जा रहा है वो कितनी होती इसका हिसाब कोई लगा सकता है क्या....

और ये जो पूर्व फलाना पूर्व ढिकाना अधिकारी बैठ कर ज्ञान दे रहे है इन्होंने अपने कार्यकाल में क्या गुल खिलाए है कितने दंगे फसाद कितने नुकसान में निपटाए है इसका कच्चा चिट्ठा भी साथ मे दिखाया जाए तो बाहर बैठकर ज्ञान देने वाले इन ज्ञानियों की योग्यता का पता चलेगा, मुझे नही लगता इनमें से किसी को भी इस स्तर की भीड़ से निपटने का कोई अनुभव भी होगा

और सबसे मजेदार बात वो न्यायालय कार्यवाही सीखा रहा है जिसे एक बलात्कारी को बलात्कारी घोषित करने में १५ साल लग गए, धन्य है हम की हमारे माननीय न्यायधीश साहब जिनकी अपनी अदालतों में करीब १५ करोड केस लंबित है बाकी सभी विभागों को ज्ञान देते है,

ऐसे में जब हर कोई टिप्पणी दे ही रहा है तो मैं भी माननीय न्यायालय को कहना चाहूँगा की न्यायालयों में एक आईना भी लगवा लो ताकि खुद को भी देख सको दुसरो पर टिप्पणी करते वक्त,

खैर आईने का बजट पता नही कब पास हो, कब टेंडर हो , कब लगाए जाए लंबी प्रक्रिया है इस पर भी किसी ने स्टे ले लिया तो गयी भैंस पानी मे १५-२० साल के लिए, तब तक के लिए एक टेम्परेरी जुगाड़ बताए देता हूँ, अपनी गिरेबान में भी झाँक लिया करो माननीय न्यायालय साहब

पंडित जी की विशेष टिप्पणी
अतुल शर्मा - Atul Sharma की कलम से,
टिप्पणी सुनाते ही कलम तोड़ दी गयी है

Friday, August 25, 2017

अब तो जागो मोहन प्यारे

कोई ये बताएगा मारने वाले आम नागरिक थे या अंधे अनुयायी,

यदि हम खुद सरकार से यही चाहते है कि दंगाइयों से सख्ती से निपटा जाए तो इन अंधे दंगाई अनुयाइयों की मौत पर इतना बवाल क्यो ? या हम ये चाहते थे कि वो अपने साथियों की भीड़ भगदड़ में ना मरकर पुलिस की गोलियों लाठी डंडों से मरते ?

वास्तव में ये लोग इसी लायक थे, इन्होंने अपने सोचने समझने की शक्ति, अपना विवेक सब कुछ एक  अपराधी को सौप रखा था, सरकार दंगे रोकने में नाकाम रही इसमे कोई संशय नही लेकिन धारा १४४ लागू होने के बावजूद इतनी भारी संख्या में लोगो का जुटना वन लोगो की मानसिक स्थिति का परिचायक है, वे अपना विवेक खो चुके थे, न्यायपालिका ने अपना काम किया फैसला सुना दिया तैयारी करने की चेतावनी दे दी, लेकिन क्या इस बवाल को किसी भी किसी मे तरीके से मौजूदा स्थिति में रोकना संभव था,

जो पंचकूला में हुआ यदि वहाँ प्रशाशन लोगो को किसी भी तरह रुकने से रोक भी लेता तो ये सब अलग अलग शहरों में होता, अलग अलग शहरों में हुई छिटपुट आगजनी तोड़फोड़ इसकी बानगी भर है, जो हालात पंचकूला के हुए वो हर उस शहर के होते जहां इनका गढ़ है, यदि आपने अपना विवेक नही खोया है तो ये आप आसानी से समझ सकते है, जो गुस्सा अभी आपका सरकार की नाकामी और इस बलात्कारी और इसके अनुयाइयों पर है वो जायज है परंतु क्षणिक है,

इन दंगों को रोकने के लिए उन सभी शहरों को एक सप्ताह पहले से पूरी तरह बंद करना पड़ता जहाँ भी तोड़फोड़ आगजनी हुई है, क्या ये संभव था ? मीडिया में इसकी खबर ना आने देना था क्या ये संभव था ? संभव या संभव तो बाद की बात है क्या ये जायज था कि एक अपराधी और उसके अनुयाइयों के डर से कई शहरों के राज्यो को पूरी तरह बंधक बना दिया जाए, सम्भव था तो बस इतना कि इस नुकसान को थोड़ा कम किया जा सकता था,

लेकिन जो भी हुआ मुझे खुशी है कि एक अपराधी को उसके अपराध की सजा मिली, उस भीड़ में मरने वाले दंगाइयों से मुझे कोई हमदर्दी नही है वो लोग वहाँ मरने मारने के लिए एकत्र हुए थे तो उन्हें उनका अंजाम मिल गया उनके लिए कैसा दुख मनाना जिनकी आत्मा, विवेक पहले ही मर चुका है,

बाकी आने वाले समय, सरकारों  और न्यायालय के लिए सीख है ये घटना, अब ये समझना ही होगा इस एक सौ तीस करोड़ की आबादी को संभालने के अधिकारों का ढोल पीटने की नही अपितु दायित्वों का एहसास कराने का बिगुल बजाने की आवश्यता है,

ये जो हमारे माननीय न्यायालय और सरकारे कभी धर्म की आजादी कभी अभिव्यक्ति की आजादी कभी फलानी आजादी कभी ढिकानी आजादी, कभी मानव अधिकार कभी निजता का अधिकार, कभी नंगे घूमने का अधिकार कभी सडको पर हवस दिखाने का अधिकार की पीपनी की बजाती रहती है ये उसी का नतीजा है, सिस्टम को नपुंसक बना कर रख दिया है और फिर उम्मीद करते है रामराज आएगा,

ये ही जानना है ना पुलिस ने ढिलाई क्यो बरती, भीड़ क्यो जमा होने दी, मैं बताता हूँ

वहाँ जो पुलिस वाले ड्यूटी कर रहे थे उनमें से कुछ के परिवार रिश्तेदार उस बाबा के भक्त बने बैठे होंगे, कुछ कोनों में खड़े हुए दारु पी रहे होंगे ड्यूटी के समय, कुछ को इस भीड़ को देख कर मजा रहा होगा, और ज्यादातर वहां बस सरकारी आदेशो को हवा मानकर पिकनिक मना रहे होंगे, कुछ अपना समय पूरा कर रहे होंगे कि आखिर अब ये बला टलेगी, बाकी जो थोड़े बहुत जिम्मेदार बचे होंगे वो खुद को परिस्थिति के सामने असहाय महसूस कर रहे होंगे,  सरकारों नेताओ को दोष गाली देते समय ये भी याद रखो की सरकार आती जाती रहती है लेकिन सिस्टम हमेशा लगभग एक जैसा ही चलता है सरकार आएगी मंत्री बदलेंगे लेकिन वास्तव में बदलता कुछ नही, अय्यास अधिकारी भी वहीं रहते है, कामचोर कर्मचारी भी वही रहते है, और हाँ पैकेट लेने वाले मंत्री साहब का पता भी वही रहता है बस ऊपर वाली लाइन में नाम बदल जाता है खद्दर पहने बैठा वो जमूरा कभी अमर बन जाता है कभी अकबर बन जाता है कभी एंथोनी बन जाता है

गुस्सा अभी बाकी है मेरे दोस्त
To be continued....

अतुल शर्मा - Atul Sharma

राम रहीम केस

गुरमीत सिंह राम रहीम (असली नाम मुझे नही पता खैर जो भी हो समझ तो गए ना) दोषी है या नही ये तय होने में अभी समय बाकी है रिजल्ट जो भी हो मुझे निजी रूप से कोई खास फर्क नही पड़ेगा, क्योंकि ना तो मैं उसका अनुयायी हूँ ना ही मेरी कोई दुश्मनी या ईष्या है, हाँ उस से जुड़ी कुछ चीजो के मजे जरूर लेता रहा हूँ समय समय पर जैसे उसके अनुयाइयों का उसे पिताजी कहना या उसका फिल्मे बनाना या उसका रंगीन लाइफस्टाइल,

फैसला जो भी आए उस से पहले मैं कोई राय नही बनाना चाहता इस बारे में क्योंकि मैंने दोनो ही पक्षो के तर्क पढ़े सुने है, वास्तविकता से पर्दा उठाने के लिए सीबीआई काम कर रही है और फैसला सुनाने के लिए कोर्ट है, यदि आज के फैसले के बाद किसी भी पक्ष को लगेगा कि उसके साथ न्याय नही हुआ तो वो ऊपरी कोर्ट का दरवाजा खटखटा सकता है, भारतीय कानून और न्याय व्यवस्था इतनी लचर है कि यदि आप किशोर अवस्था मे कोई अपराध करे और कानून से लड़ने का जज्बा दिखाए तो आप पूरी जिंदगी मीडिया में रहकर भी एक सम्मानित नागरिक की तरह अपना जीवन जीकर बुढ़ापे में अपनी मौत मर सकते हैं,   तो राम रहीम या समर्थकों को इसमे चिंता करने या परेशान होने की जरूरत नही है न्यायालय के दरवाजे अपराधियो के लिए रात के २ बजे भी खुल सकते है बस आपमें खुलवाने का दम होना चाहिए और इस मामले में मुझे कोई संदेह नही ये गुरमीत राम रहीम किसी भी तरह से कमजोर है,

एक और बात यदि आज फैसला राम रहीम के खिलाफ आता है तो ये जो हुजूम सड़को पर जुटा हुआ है भारतीय कानून व्यवस्था की जड़े हिला देगा, हालांकि इस बार सरकार परिस्थितियों से निपटने के लिए पूरी तरह तैयार है लेकिन टकराव की स्थिति बनी तो परिणाम भयानक होंगे,

इस सब से इतर मुझे कोर्ट का रवैया पसंद आया जिसने प्रशाशन को खुले हाथ दिए है स्थिति से निपटने के लिए, लेकिन साथ ही साथ एक बात परेशान भी कर रही है वो है कोर्ट की क्षणिक मर्दानगी, माफी चाहूंगा आपने बिल्कुल सही पढ़ा है, क्या ये वही भारतीय न्यायालय है जो आतंकियों के मददग़ार / या भावी आतंकियों पर नरमी बरतने के आदेश सेना को देती है, सेना को पैलेट गन चलाने से रोकना चाहती है लेकिन यहाँ निहत्थे अनुयायियों पर कोई नरमी ना बरतने का आदेश देती है, मीडिया हॉउस या अदालतों के बाहर बैठे वो दलाल मानव अधिकारों के रक्षक भी कहीं नही दिखाई दिए जो अदालत के इस रवैये के विरोध में मोमबत्ती जला सके या आदेश पर ऊपरी कोर्ट से स्टे ला कर सरकार प्रशाशन के हाथ बाँधने की कोशिश कर सके,

अदालतों के मर्दानगी देशद्रोहियो के खिलाफ कहाँ चली जाती है, कभी कसाब को बिरयानी खिलाती है कभी पत्थरबाजों के मानवाधिकारी गिनवाती है, शायद रामपाल केस में जो प्रशासन के धुएं निकले थे उन्हें देख कर ये तैयारी हो,

हाँ यदि फैसले के बाद यदि किसी भी तरह का कोई हंगामा हो तो मैं खुद चाहता हूँ कि सख्ती से निपटा जाए, कोई भी आंदोलन/ विरोध/ प्रदर्शन यदि हिंसात्मक होता है तो सरकार को कुछ समय के लिए मानवाधिकार और अदालत की तरफ से आँख बंद करके उसे सख्ती से कुचलना चाहिए, और हां दंगे के बाद भी एक एक को चुन चुन कर उन्हें आभास कराना चाहिए कि हम बन्दरो की प्रजाति के है पिछवाड़ा अभी भी लाल हो सकता है

और जिस तरह शासन प्रशासन तैयार उसे देख कर  पहले ही बता सकता हूँ आज राम रहीम पर आरोप सिद्ध होंगें और सजा सुनाई जाएगी, आज गुरमीत राम रहीम का तिलिस्म टूटना लगभग तय है

..... To be continued

#रामरहीम #हरियाणा #पंजाब #पंचकूला
अतुल शर्मा - Atul Sharma