काँवड़ यात्रा : मेरा अनुभव
#भाग_४
#दूसरा_दिन
#नारसन_से_मंसूरपुर
अभी तक आपने पढ़ा,
#भाग_१ #यात्रा_पूर्व_तैयारी
#भाग_२ #हरिद्वार_प्रस्थान
#भाग_३ #हरिद्वार_से_नारसन #पहला_दिन
अब #भाग_३ से आगे
हाँ तो यात्रा के पहले दिन हमने नारसन से पहले शाम को लगभग ८ बजे काँवड़ को विश्राम दिया, लेटने की जगह का इंतजाम होते ही साढ़े आठ बजे तक ही मुझे भयानक नींद आ गयी, सीधे सुबह तीन बजे नींद खुली, तब तक धीरे धीरे लोग जगने शुरू हो चुके थे,
मेरे साथी संदीप अभी भी सोए है थे, मैंने सोचा अभी सोने देता हूँ पहले फ्रेश हो लेता हूँ तब जगाऊंगा, लेकिन टॉयलेट के बाहर पहले से ही लाइन लगी हुई थी, जगने के बाद मुझसे इंतजार नही होता तो मैंने बैग से पानी की बोतल निकाली, संदीप को जगाया और मैं सुबह ताजी हवा में प्रातःकालीन भ्रमण पर निकल गया किसी गुप्त जगह की तलाश में, रात में ठहरने से पहले ही देखा था कि आसपास खेत हैं तो मुझे उम्मीद थी मेरी समस्या का हल हो जाएगा, थोड़ी मेहनत के बाद मैं सड़क के दूसरी पार एक खेत मे पहुंच गया जहाँ मेरे जैसे ही खुले में शौच करने दो चार बंधु और भी थे, हालांकि अभी अंधेरा था जोकि खुले में शौच के लिए आदर्श स्थिति है,
इस पूरे प्रक्रिया में मुझे लगभग आधा घण्टा लग गया उसके बाद मैंने संदीप को भी उस स्थान का पता दिया और जल्दी वापस आने को बोला, अब नहाने की बारी थी तो उसका वहां उचित इंतजाम था, फटाफट बारी बारी से हम दोनों नहाकर आए और सुबह की धूप बत्ती जला कर काँवड़ को प्रणाम कर भोले बाबा का स्मरण करते हुए दूसरे दिन की यात्रा शुरू की, समय हो चुका था साढ़े चार,
सुबह का समय था चलने के लिए अनुकूल था, लेकिन रात में मैंने खाना नही खाया था तो भूख भी जल्दी ही लग गयी, एक घण्टे में करीब पांच किमी चलने के बाद एक चाय की टपरी पर सुबह की चाय पी, और फिर आगे की यात्रा शुरू, अबकी बार फिर से करीब एक घण्टा चलने के बाद हम लोग पुरकाजी पहुँच गए, पुरकाजी में फिर थोड़ा आराम करने का मन बनाया, एक दुकान के बाहर बैंच पड़ी देख कर हम वहीं बैठ गए , मैं जेब से फोन निकाल कर फोन में व्यस्त हो गया, फोन पर गाँव के पड़ोसी हिमांशु गुप्ता की मिस्ड कॉल थी, पहले साथ मे आने का प्लान था लेकिन व्यस्तताओं के चलते साथ नही आ पाया था, और मेरे एक दिन बाद गाँव के सबसे तेज कांवड़िया के साथ आया था,
बात होने पर पता चला कि पुरकाजी में गुप्ता चांट भंडार की चांट प्रसिद्ध है वो जरूर खाना, मैंने बोला कि वो तो पीछे छूट गयी क्योंकि एक बड़ी सी गुप्ता चांट भंडार पीछे छूट चुकी थी बाईपास पर,
बात खत्म करके मैं काँवड़ उठाने के लिए हाथ धो रहा था नल पर, तभी पास के गुजरते एक लोकल से पूछा गुप्ता चांट भंडार कहाँ पड़ता है, तो उसने उंगली सामने की तरफ उठा कर बताया ये रहा,
मुझे हँसी आ गया हम पुरकाजी की प्रसिद्ध गुप्ता चांट भंडार के सामने ही बैठ कर उसी का पता पूछ रहे थे, दरअसल दुकान छोटी सी और बड़ी साधारण सी थी देखने मे, इसलिए उस और ध्यान ही नही गया, मैंने संदीप को बोला भी यहाँ से चांट खाकर ही चलेंगे बड़ी प्रसिद्ध दुकान है, ये बोलकर मैं उसे आने का इशारा करते हुए दुकान की और बढ़ गया, और दो प्लेट टिक्की चांट का आर्डर दिया, इतनी सुबह बाकी शहरों में शायद की चांट पकौड़ी की कोई दुकान खुलती हो लेकिन यहाँ दो दो गुप्ता चांट भंडार बिल्कुल बगल में खुली थी, दोनो ही असली, दोनो पर गुप्ता जी का फोटो, मुझे देखने मे जो दुकान ज्यादा पुरानी लगी मैं उसी पर गया था,
कई तरह की चांट उपलब्ध थी और इतनी सुबह ही खाने वाले भी, चांट वास्तव में अपनी नाम के अनुरूप थे निराश नही होना पड़ा, मजा आ गया, एक प्लेट में ही पेट भी फुल हो गया, अब हम तैयार थे आगे की काँवड़ यात्रा के लिए,
पुरकाजी से निकलते हुए घर से फोन आ गया तो मैं फोन पर बात करते हुए चलने लगा, शायद अब हमारी चलने की गति में अंतर आ चुका था क्योंकि संदीप पहले ही दिन से जाँघ लगने से परेशान था, मैंने देखा वो मुझे ८-१० खत्म पीछे चल रहा था, मैं फिर फोन पर बात करते चलता रहा बात लंबी चली, बात खत्म करके देखा तो संदीप पीछे दूर दूर तक कहीं नही दिख रहा था, फिर मैंने सोचा थोड़ा धीरे धीरे चलता हूँ आ जाएगा, यदि कोई बैठने लायक जगह दिखी तो बैठकर इंतजार करूँगा, आगे एक गाँव मे एक दुकान के बाहर सड़क किनारे तख्त पड़ा था तो मैं वहीं बैठ कर इंतजार करने लगा, करीब आधा घण्टा बैठा रहा लेकिन संदीप कहीं नही दिखा,
हालांकि हम दोनों कल से साथ थे लेकिन अभी तक दोनो में से किसी का भी फोन नम्बर नही लिया था, जिसकी जरूरत अब मुझे महसूस हो रही थी, फोन नम्बर होता तो बात कर लेता की कहाँ हो,
आधा घण्टा इंतज़ार करने के बाद भी जब संदीप नही दिखा तो मैंने दोबारा चलना शुरू कर दिया ये सोच कर की शायद यहीं तक साथ था, अब मैं बिल्कुल अकेला था यूं तो सड़क पर लाइन लगी हुई थी कांवड़ियों की लेकिन कोई जानने वाला साथ नही था,
मैं धीरे धीरे मंजिल की और बढ़ने लगा, मेरी पानी की बोतल खाली हो चुकी थी और प्यास लगी थी तो रास्ते मे कोई दुकान दिखने का इंतजार करने लगा, फिर एक जगह शिकंजी की दुकान दिखाई पड़ी तो सोचा चलो शिकंजी पीता हूँ और बैठ गया, शिकंजी पीते ही मुझे पता नही क्या हुआ भयानक नींद आने लगी, आँखों के कहने से मना कर दिया और मैं लगभग नींद की बेहोसी में चला गया, थोड़ी देर बाद जब आंख खुली तो मैं वहीं कुर्सी पर बैठा था मैं चलने की तैयारी कर ही रहा था कि सामने से संदीप जाता हुआ दिखा मैंने आवाज लगाई जल्दी जल्दी समान समेटा और फिर से साथ लग लिया, पीछे क्या क्या कैसे हुआ कहाँ बिछड़े कहाँ कहाँ इंतजार किया इसकी बात हुई, और साथ चलने लगे, अगले पांच मिनट में ही बरला टोल के पास बन्दा फिर से गायब आगे मुझसे निकला नही था इसके लिए मैं पूरी तरह आश्वस्त था, पीछे दूर दूर तक भी दिख नही रहा था, थोड़ा इंतजार भी किया लेकिन फिर भी नही दिखा, मैंने सोचा शायद अब वो चल नही पा रहा है और साथ नही रहना चाहता इसीलिए बार बार पीछे जान बूझकर रुक रहा है तो मैं आगे बढ़ गया,
बरला आते आते धूप भी तेज हो चुकी थी और थोड़ी थकान भी, अकेला था तो चलने में मजा भी नही आ रहा था, फोन पर गूगल मैप देख कर एक के बाद एक छोटी छोटी मंजिल सेट करता कि यहां तक जाना है, शायद करीब १२ बजे होंगे छपार में मेरे सहकर्मी और फेसबुक मित्र Rishi Dixit जी का फोन आया उन्होंने बताया छपार इंटर कॉलेज में अच्छा इंतजाम होता है रुकने के लिए, सब व्यवस्था बढ़िया होती है तो मैंने सोचा कि चलो यहीं देखते है लेकिन अब चलने में वापस मजा आने लगा था,
छपार इंटर कॉलेज के भंडारे पर पहुंचा तो वहां वास्तव में इंतजाम तो जबरदस्त थे लेकिन भीड़ भी काफी थी और मैं अभी चलने में सक्षम महसूस कर रहा था, मैंने सोचा जब चल सकता हूँ तो रुकना क्यो है आगे कहीं देख लेंगे और मैं बढ़ गया,
छपार पार करते ही मुझे अपनी गलती का अहसास हुआ, छपरा निकलते ही सड़क पर धूप बहुत ही ज्यादा तेज थी, पेड़ सड़क के किनारे से गायब थे एक किमी चलने ही मेरे प्राण गले आ गए, मैं बैठने के लिए जगह ढूंढने लगा लेकिन यहां दूर डर तक दुकान भी नही दिख रही थी सड़क किनारे, मैं भगवान को याद करते आगे बढ़ रहा था, ये मेरी यात्रा का सबसे निराशाजनक दौर था हिम्मत जवाब दे रही थी, मन मे ख्याल भी आया कि लटक लूँ गाड़ी में 😋, लेकिन मैं हिम्मत जुटा कर चलता रहा, किसी तरह सड़क किनारे लगी एक दुकान दिखाई दी लेकिन वहां बैठने को भी जगह नही थी लेकिन मैंने फिर भी वही थोड़ी छांव देखकर एक कोने पर बैठ गया, गर्मी ज्यादा थी जगह कम थी, धूप तेज थी लेकिन हिम्मत जवाब दे चुकी थी इसलिए मैं वहीं बैठा रहा, थोड़ा आराम करने के बाद हिम्मत जुटाई की शायद आगे कहीं ठीक जगह मिल जाए तो कमर सीधी करता हूँ लेटकर, सोचकर मैंने सामान समेटा तो कंधे पर पड़ा गमछा गायब था, आसपास देखा नही दिखा, शायद पीछे रास्ते मे कहीं गिर गया होगा और मुझे पता नही चला, मैं सामान समेटकर आगे बढ़ गया,
धूप और गर्मी से परेशान मैं आगे बढ़ता जा रहा था किसी ठीक ठाक ठिये के इंतजार में, तभी मेरी मुलाकात गाँव के ही तीन लड़को से हुई जिनमे मेरा एक बचपन का सहपाठी कपिल त्यागी, उसका चचेरा भाई चेतन, और मेरे खेत का पड़ोसी कपिल थे, जानने वालों को देखकर थोड़ा हौंसला आया , बात करते हुए हम साथ साथ आगे बढ़ने लगे बातो में थकान और गर्मी भूल गया, फिर हम मेन हाइवे से उतरकर सिसौना गाँव की और जाने वाले रास्ते से बढ़े, सिसौना में ही एक घर के बाहर चबूतरे पर पेड़ के नीचे हमने डेरा जमाया, जगह साफसुथरी थी, शांत भी थी, और हम थके हुए भी थे तो सब कमर सीधी करने लगे, करीब आधा घंटा वहां आराम करने के बाद हम मुजफ्फरनगर के लिए बढ़ गया क्योंकि लंबे वाला आराम अब वहीं होना था,
नए मिले गाँव वाले तीन दोस्तो में कपिल घायल था उसके पैर में सूजन थी डंडे के सहारे चल रहा था, मुजफ्फरनगर में घुसते ही रेलवे लाइन के अंडरपास के पास ही एक खेत मे हमने अपना डेरा जमा दिया दोपहर के आराम का, सड़क के दूसरी और भंडारा भी था लेकिन सड़क से थोड़ा हटकर था तो हम वहां नही गए, वहीं सबने खेत मे एक एक नींद ली, कमर सीधी हुई शरीर थोड़ा फ्रेश, अब दोपहर भी थोड़ा उतर चुकी थी,
अगली मंजिल था शिव चौक, मुजफ्फरनगर पहुंच कर अपनेपन का अहसास हुआ, यहाँ शानदार आदर सत्कार मिला जगह जगह, वैसे भी दो साल रहा हूँ मुजफ्फरनगर में तो अपना सा लगा, यहां लोगो मे उत्साह था, रौनक थे, यहां कांवड़िया केवल ग्राहक नही थे वे कांवड़िया ही थे,
शिव चौक पर परिक्रमा की, जयकारा लगाया , हाथ जोड़े एयर आगे बढ़ गए, मुजफ्फरनगर काफी लंबा बसाया हुआ है अभी भी कई किलोमीटर बाकी था, कंपनी बाग आते आते थकान लगने लगी तो फिर आराम करने का प्लान किया सड़क किनारे वहीँ पेड़ो की छांव देखकर बैठ गए, जैसे तैसे मुजफ्फरनगर पर हुआ अब हमारी आज की मंजिल थी नावला की कोठी, नावला पहुंच कर आज का रात्रि विश्राम करने का, हम धीरे धीरे आगे बढ़ रहे थे और थकान भी, अब भी मन्जिल दूर थी,
आज फिर वो ही ८ बजे हम मंसूरपुर पहुंच कर खाने का इंतजाम देखने लगे एक ढाबे पर रुके खाने के लिए क्या क्या उपलब्ध है पूछा लेकिन वहां अभी कुछ तैयार नही था, फ़ास्ट फ़ूड थे लेकिन खाना बनने में अभी टाइम लगता तो आगे बढ़ गए आगे चलकर एक ढाबे पर तवे वाली रोटियां बनती दिखी, वहां पूछा तो सब तैयार था, ऑप्शन केवल थाली कीमत ५० रुपये, आलू टमाटर, आलू गोभी, कढ़ी, पीली दाल, अरहर दाल में से कोई तीन सब्जी, चार रोटी और चावल,
सबने भर पेट खाया खाना अच्छा था, वैसे हरी मिर्च भी देने वाला था लेकिन हम मांगते रहा गए खाना खा लिया लेकिन उसकी हरि मिर्च नही आई,
अब खाना खा कर हम करीब तीन किमी ही चले होंगे सब को आलस आने लगा तो हम एक नए आज रात यहीं रुकने का प्लान किया नावला अभी भी करीब ४ किमी बाकी था, सड़क के किनारे एक अच्छा खासा भंडारा था लेकिन जगह नही थी वैसे भी हम चार थे तो काफी जगह चाहिए थी अकेले तो कहीं भी एडजस्ट हो जाते, तो भंडारे के बाहर सड़क किनारे ही बिस्तर लगा दिया, आज की यात्रा का तो यहां विश्राम हो गया लेकिन मेरा विश्राम ना हो पाया, पूरी रात मच्छरों ने जम कर सेवा की मेरी,
#भाग_५ में जारी .....