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Thursday, August 29, 2019

काँवड़ यात्रा : मेरा अनुभव (भाग ३)


काँवड़ यात्रा : मेरा अनुभव

#भाग_३ 
#पहला_दिन #हरिद्वार_से_नारसन
#भाग_२ #हरिद्वार_प्रस्थान से आगे

अभी तक आपने पढ़ा #भाग_१ में काँवड़ यात्रा की तैयारी, और #भाग_२ में दिल्ली से हरिद्वार पहुंचने का वर्णन, अब आगे

हर की पैड़ी पहुंचते ही गंगा मैया के दर्शन कर रात भर भीड़ भारी ट्रेन में खड़े होकर यात्रा करने की  थकान गायब हो गयी थी, गंगा मैया का जयकारा लगा कर हर की पैड़ी घाट पर पहला कदम रखा, ट्रेन में मिले सहयात्री ताऊ के साथ अब तक एक मौन समझौता हो गया था, क्योंकि जरूरत दोनो की थी, तो एक दूसरे के सामान की देख रेख और सहयोग से हम दोनों ने बारी बारी से गंगा स्नान किया, मैं काँवड़ यात्रा में बिल्कुल नया था तो मैं बस ताऊ की नकल कर रहा था, नहा धोकर, गंगा जल भरा और दीपक जलाया, प्रसाद चढ़ाया और गंगा जल कंधे उठाकर भोले का नाम लेकर काँवड़ यात्रा शुरू कर दी, समय था सुबह दो बजकर पंद्रह मिनट, 
घाट छोड़ने से पहले एक सेल्फी भी ली, 
यात्रा के शुरू में ही ताऊ ने अपने किस्से सुनाने शुरू कर दिए थे तो मुझे सुनते जाना था, ऐसे भी मैं कम ही बोलता हूँ तो मेरे पास सुनाने को कुछ था भी नही, 
ताऊ जब भी रास्ते मे तेज चलते या ज्यादा जल लेकर चलते काँवड़ यात्रियों को देखता तो मुझे हर बार बताता की इन सब की दुर्गति होने वाली है, अभी जोश है इसलिए दौड़ रहे है इतना वजन लेकर ज्यादा नही जा पाएंगे, ये ताऊ का वर्षो का अनुभव था, 
घर से मिली नसीहतों को ताऊ के ज्ञान से इतना अंदाज मुझे भी हो गया था कि मुझे किसी भी हालत में जल्दबाजी नही करनी है, अपनी चाल से चलना है, खैर बातो बातो में पहले ही झटके में कब रेलवे स्टेशन वापस निकला, कब रानीपुर मोड़, कब ज्वालापुर गया ये बस पता ही नही चला समझो, पहले ही झटके में हम सीधे बहादराबाद पहुंच गए, 
अब तक रास्ते मे हमे चलते हुए यात्री मिल रहे थे लेकिन यहां डीजे काँवड़, डाक काँवड़, का जमावडा लगा हुआ था, सड़क पूरी तरह जाम थी, सड़क और आसपास काँवड़ यात्रियों की गाड़ियां लगी हुई थी, वही सबका खाना पीना नहाना धोना सोना चल रहा था, 
यहां तक आते आते और आराम करती जनता को देख मुझे थकान वापस महसूस होने लगी थी तो मैंने रुकने को बोला, हमने भी वही एक चाय की दुकान पर दो खाली कुर्सी देखकर थोड़ा आराम किया ये ही कोई पांच मिनट, 
 कारण था हर ओर जंगली भेडियो का प्रकोप, ( जंगली भेड़िये सड़क किनारे अंधेरे में पानी की बोतल के साथ पाई जानी वाली दो चमकीली आंखों वाली एक विशेष प्रजाति है )
वहां थोड़ा आराम करने के बाद जल्दी ही दोबारा काँवड़ यात्रा शुरू हुई इस बार मेरी चलने की रफ्तार पहले से कम हो चुकी थी, अब ताऊ मुझे थोड़ा आगे चल रहे ठगे और मैं थोड़ा पीछे, एक दो किमी चलने के बाद थोड़ा उजाला होना शुरू हो गया था सड़क किनारे लगने वाली दुकाने सजने लगी थी, कल दोपहर से कुछ खाया नही था तो मुझे भूख लगने लगी थी, सड़क किनारे एक चाय के स्टाल पर पकोड़ी के लिए बेसन घोलते एक दुकानदार को देख मैं फिर से रुक गया, 
एक प्लेट पकोड़ी और दो चाय बोलकर हम वहीं बैठ गए इंतजार में, चाय पकोड़ी का इंतजार करते एक दो और कांवड़ियों से जान पहचान और थोड़ी बातचीत हुई सब अपने अपने अनुभव बता रहे थे गत वर्षों के एक मैं ही था जिसके पास पुराना कुछ नही था बताने को, तो मैं सवका ज्ञान सुनकर आने वाली यात्रा के लिए संजो रहा था, 
चाय पकौड़ी बनकर आ गयी थी, अब लग रहा था कि यहां बैठकर गलती कर दी, कारण चाय और पकोड़ी की शक्ल और स्वाद, जैसे तैसे खत्म की और आगे बढ़ गए, 
दिन निकलने के साथ ताऊ की रफ्तार तेज और मेरी धीमी होती जा रही थी, अब ताऊ कब कहाँ मेरी नजरो से ओझल हुए पता नही चला मैं अपनी चींटी की चाल से चलता रहा, 
समय फिन के करीब ११ बज गए थे अब अगला लक्ष्य रुड़की दिख रहा था, इसी बीच मुझे ताऊ दोबारा दिखे लेकिन इस बार मैं तो को इग्नोर कर आगे बढ़ गया, थोड़ा आगे जाने पर मुझे एक नया साथी मिल गया, नाम संदीप उपाध्याय, पेशे से अध्यापक, पड़ोसी गाँव खेड़ी के निवासी, संदीप से पहली मुलाकात चाय पकोड़ी के स्टाल अपर हुई थी, उनके साथी उन्हें छोड़कर फरार हो चुके थे अब वो भी अकेले थे और मैं भी, तो अब हम दोनों साथ हो लिए, रुड़की पहुंचने से करीब ३-४ किमी पहले हम भी चाय के लिए , हम चाय के लिए रुके और बारिश शुरू हो गयी जोकि करीब डेढ़ दो घंटे चली, हम जहां रुके थे वहां भी बारिश  से बचने का कोई खास इंतजाम नही था, जैसे तैसे थोड़ा भीगे थोड़ा बचते हुए हमने वहां समय पूरा किया बारिश का, बारिश रुकते ही अब हम दोबारा चल पड़े, लक्ष्य अभी भी रुड़की ही था, 

रुड़की पहुंचने की खुसी थी हम दोपहर तक रुड़की आ चुके थे, घर से चलने से पहले किसी ने कहा था पहले दिन रुड़की पहुंचना भी भारी हो जाता था हमारे पास अभी भी आधा दिन था, लेकिन अब हम तक चुके थे रुड़की में घुसते ही मेरी नजर किसी आराम करने लायक ठिकाने को ढूंढती चल रही थी, जहाँ मैं लेट कर कमर सीधी कर सकूं, जल्दी ही मेरी तलाश पूरी हुई, एक रेस्टोरेंट /ढाबे वाले ने अपने रेस्टोरेंट के साथ बड़े से हाल बरामदे में कांवड़िया के रुकने का इंतजाम किया हुआ था, साफ सुथरी जगह थी, ज्यादा भीड़ भी नही थी, मैंने संदीप को बोला यहीं आराम करते है दोपहर में अब शाम को चलेंगे, वो भाई मुझसे पहले ही थका हुआ था, वो भी तुरंत राजी हो गया,
 मैं तो पहले ही तैयार था, तुरन्त काँवड़ स्टैंड पर टिकाई, अंदर घुस कर ठीकठाक जगह देखी, बैग से बैठने के लिए खरीदी गई पॉलीथिन शीट निकाली, बिछाई और तुरंत फ्लैट.... थोड़ा आराम मिलते ही मुझे तो फटाक से नींद आ गयी , अपने संदीप भाई पेट से भी परेशान थे, जाँघे भी लग चुकी थी तो पता नही उन्हें नींद आई या नही, दो घंटे की बढ़िया वाली नींद निकालने के बाद जब मैं जगा तो संदीप पहले ही जगा हुआ था, मुझे जगा देखकर बोला सामान का ध्यान रखूं वो पेट खाली करने जा रहा है, उसके वापस आने तक मेरी नींद भी भाग चुकी थी, तो मैं भी उठकर थोड़ा बाहर निकला हाथ मुँह धुले, टंकी खाली की, फिर से चलने की तैयारी शुरू की, फिर सोचा कि ढाबे पर इतनी देर आराम किया है तो इसके यहां कुछ खा लेते है, देखा तो खाने में केवल एक ही ऑप्शन था छोले भटूरे, भयानक गर्मी में छोले भटूरे खाने की हिम्मत नही हुई तो फिर से एक एक चाय पीकर काँवड़ यात्रा शुरू कर दी, 
गर्मी अभी भी काफी ज्यादा थी, थोड़ा चलने में ही गर्मी और पसीने ने हालत खराब कर दी, जैसे तैसे रुड़की पर हुआ, रुड़की पर करना ही ऐसा लग रहा था जैसे सुबह से चल रहे है और रुड़की खत्म ही नही हो रहा, 
युहीं रुकते रुकाते चलते चलाते हम बढ़ते जा रहे थे और संदीप भाई अपने छोड़ कर जाने वाले साथियों से अभी तक गुस्सा थे, उनके साथी उन्हें मनाने को बार बार फोन कर रहे थे , वो फोन पर पहले उन्हें भला बुरा सुनाते फिर उनकी करामात मुझे बताते, दोपहर बाद जब हम चले थे तो हमारा लक्ष्य आज किसी तरह पुरकाजी पहुंचने का था, रात ११ बजे तक चलने का सोचा था, 
लेकिन शरीर अब चलने को मना करने लगा था, दोनो की हालत पतली हो चुकी थी, हम तीन चार किमी, कभी दो किमी चलकर वापस बैठ जाते, स्पीड भी अब बस रेंगने भर की ही रह गयी थी चलते चलते, 
पुरकाजी का लक्ष्य अब मुश्किल हो चला था, तो मन मे सोचा कि चलो पुरकाजी नही तो किसी तरह नारसन तक तो पहुंच ही जाए, अंधेरा हो चला था ज्यादातर कांवड़िया अब धीरे धीरे ठिकाने ढूंढने लगे थे, नारसन अब भी करीब दो तीन किमी बाकी दिख रहा था, खैर नारसन से पहले एकफ्लाईओवर पड़ता है उसको पर करते ही मुझे एक अच्छी की कोठी दिखाई दी जिसमे कांवड़ियों के रुकने का इंतजाम था और साफ सुथरी भी लग रही थी, हालांकि अभी हमारा रुकने का कोई प्लान नही था लेकिन जगह देख कर मुझे लालच आया और मैन संदीप को बोला आगे ऐसी जगह शायद ही मिले, रात हो चुकी है तो जितना भी आगे बढ़ेंगे रुकने वालो की भीड़ ज्यादा ही मिलेंगी तो जगह मिलना भी मुश्किल होगा क्यो ना यहीं आराम किया जाए, 
अंदर घुसे जगह देखी तो हमारा रुकना फाइनल हो गया, और हम अपनी काँवड़ को भी विश्राम करा कर, बिस्तर लगा दिए, हालांकि अब भूख भी लग गयी थी और खाने का समय भी हो चला था, 
हाथ मुँह धुलकर जैसे ही हम आराम करने को लेटे फिर मुझे ना भूख याद रही ना प्यास, पांच मिनट के अंदर ही नींद आ गयी , 

इस तरह यात्रा के पहले दिन का समापन हुआ, यात्रा अभी जारी है...
क्रमशः...

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