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Friday, August 30, 2019

काँवड़ यात्रा : मेरा अनुभव ( भाग ६, अंतिम कड़ी)

  भाग ६ अंतिम कड़ी
पुरामहादेव जलाभिषेक 

अभी तक भाग १ में यात्रा की तैयारी, भाग २ में दिल्ली से हरिद्वार ट्रेन यात्रा का विवरण, भाग ३ में काँवड़ यात्रा के पहले दिन हरिद्वार से नारसन का सफर, भाग ४ में यात्रा के दूसरे दिन नारसन से मंसूरपुर तक, और भाग ५ में तीसरे दिन मंसूरपुर से अपने गाँव रासना तक की यात्रा पढ़ी,

अब आगे 

पिछले भाग के अंत मे आपने पढ़ा कि हम सुबह ढाई बजे जगने का निर्णय करके सो गए, घर के साफ सुथरे बिस्तर, हवा और अच्छे खाने की वजह से अच्छी नींद आई, सुबह ढाई बजे एक बार मेरी नींद खुली मैंने पहले फोन में टाइम देखा फिर आसपास, सब मस्त सोए पड़े थे, मैं भी चुपचाप चद्दर वापस ढक कर सो गया, थोड़ी देर बाद तीन बजे बाहर से मम्मी की आवाज आई, जो इतनी सुबह उठकर हमे जगाने आ गयी थी, अब तो जगना ही था तो धीरे धीरे सब जगे और दैनिक क्रियाओं से निपटकर पुरा महादेव जलाभिषेक के लिए निकल पड़े, निकलते निकलते ५ बज गए थे, पुरा महादेव हमारे यहां से करीब १०-११ किमी है तो हमने ८ बजे तक पहुंचने का अनुमान लगाया, 

धीरे धीरे चलकर और रास्ते मे दो जगह रुककर भी 8 बजे से पहले ही पुरा पहुंच गए, मेला परिसर में एक जानकर की दुकान पर अतिरिक्त सामान और जूते चप्पल रखकर हम सब मंदिर परिक्रमा और जलाभिषेक के लिए लाइन में पहुंचे, अब तक भीड़ काफी बढ़ चुकी थी

बाहरी परिक्रमा के बाद जब मुख्य लाइन में पहुंचे वहां भीड़ भयानक थी, यहां से लाइन बड़े धीमे से खिसक रही थी, किसी तरह मंदिर के प्रवेश द्वार तक पहुंचे, यहां बैरिकेट अलग ही तरीके से लगाया गया था जिसके नीचे से बैठ कर जाना था, जिसकी उचाई कमर से भी नीचे थी, इतनी भीड़ धक्कामुक्की में उसके नीचे से निकलना अपने आप मे चुनोतिपूर्ण था, ये भगवान का आशीर्वाद या कृपा ही समझ लो यहां कोई हादसा नही हुआ, 



भीड़ में जैसे तैसे मसक्कत करते हुए हम भी मुख्य मंदिर में पहुंचे शिवलिंग का जलाभिषेक किया, जलाभिषेक करते सेक्युरिटी ने आगे ढकेल दिया, मंदिर के मुख्य निकास द्वार पर बाकी साथियों के आने की प्रतीक्षा की कुछ मुझ से पहले आ चुके थे एक दो बाकी थे, 

अब बारी थी मेला घूमने की, तो निश्चित हुआ कि मेला जिसका जैसे मन है घूमे और घूमकर अंत मे सब उसी दुकान पर मिलेंगे जहां सामान और जूते चप्पल रखे है,  तो हम लोग दो टीम में अलग अलग हो गए, मेरे साथ राहुल और गौरव रह गए, बाकी लोग अलग निकल गए, 
मेले में सबसे पहले घर के बच्चों के लिए खिलौने खरीदे, फिर प्रसाद के साथ देने के लिए कुछ माला आदि, फिर घर मंदिर के लिए घंटी आदि कुछ सामान, शॉपिंग के बाद बाहर की तरफ चलते हुए खाने के स्टाल थे वहां छोले भटूरे का स्टाल देखते ही राहुल फैल गया को छोले भटूरे खाने है मैंने उसे बड़ी मुश्किल से समझाया कि यहां आज खाने लायक कुछ नही मिलेगा , गाँव का मेला है तो सब रेलमपेल होगा, फिर पड़ोस में ही चांट देखकर फैल गया, चांट देखकर मैंने भी सोचा कि चलो खा ही लेते है तो हम तीन लोग साथ थे तीन प्लेट टिक्की आर्डर की, दिखने में तो टिक्की ठीक थी लेकिन स्वाद गायब था, मैं टिक्की ख़त्म कर पाता इस से पहले ही राहुल वापस भाग कर छोले भटूरे की स्टाल में घुस गया बोला भाई मैं छोले भटूरे देख कर कंट्रोल नही कर सकता, 
समझाने के बाद भी नही माना तो मैं साथ तो चला गया लेकिन खाने से मना कर दिया कि केवल दो प्लेट मंगाई जाए, छोले भटूरे जब सामने आए तो उसका सारा छोले भटूरे का प्रेम गायब हो गया, 
अब मेरी हंसने की बारी थी मैं उसकी शक्ल और छोले भटूरे की प्लेट देख कर हंस रहा था, उन दोनों ने किसी तरह एक एक भटूरा खाया एक एक प्लेट में ही छोड़ कर गायब, मैंने भी उन्ही की प्लेट से टेस्ट किया था थोड़ा, हम छोले भटूरे के स्टाल पर पहुंचे थे तभी बाकी लोग अड्डे पर पहुंच चुके थे जहाँ मिलना था उनका फोन आना शुरू हो चुका था, 
हम उन्हें गोली देते रहे कि यहां पहुंच गए वहां पहुंच गए दुकान नही मिल रही, फिर जब हम पहुंचे तो उनसे उनसे नजर बचा कर थोड़ा आगे निकल गए दुकान से फिर वापस मुद कर आए और बोले हम तो बाहर तक पहुंच गए थे दुकान नही दिखी, 
   
फिर हमने वहां से जूते चप्पल और बाकी सामान लिया और वहां से प्रसाद खरीदा सबने घर के लिए, अब फिर बाहर निकलकर हमने घर के लिए ऑटो बुक किया, रास्ते मे एक ट्यूबवेल पर सब जी भरकर नहाए, जो जाते हुए ही निश्चित हो गया था कि वापसी में यहां नहाकर चलेंगे, 
  गाँव पहुंच कर, गाँव के मंदिर, और आपने देवता पर भी जल और प्रसाद चढ़ाया फिर हम सब अपने अपने घर निकल लिए और हमारी काँवड़ यात्रा का अंत हुआ, 

विशेष 
  हमारी यात्रा में मुझे कहाँ क्या कमी लगी , आगे के लिए क्या सीख मिल इस बारे में थोड़ी बात कर लेते है, 
  १, यदि आपका प्लान पहले से ही फाइनल है कि जाना है तो शारीरिक रूप से भी थोड़ी तैयारी जरूर कर लें पैदल चलने की, 
  २, मच्छरों से सुरक्षा के लिए अपने साथ ओडोमास जैसा कुछ जरूर अपने साथ रखे, 
 ३, धूप में चलने से पूरी त्वचा झुलस जाएगी तो बड़ी कैप और यदि हो सके तो सनक्रीम भी जरूर ले ले, क्योंकि आने के बाद मैंने देखा झुलस कर पूरी त्वचा काली पन्नी जैसी हो गयी थी जो जगह जगह से पपड़ी के रूप में उतर भी रही थी, 
 ४, साथी हमेशा विश्वसनीय चुने जो हर हाल में साथ रहे और जिनके साथ आप हर हाल में रह सकते हो, एक दूसरे को छोड़कर ना भागे
५, सबसे पहला और जरूरी श्रद्धा और आस्था सबसे ज्यादा मुख्य है, इसके बिना यात्रा सफल होना मुश्किल है भले ही शारीरिक रूप से कितने भी मजबूत हो,
६, यात्रा का सबसे दुखद पहलू जिसके बारे में अभी तक कहीं कोई जिक्र नही किया, नशा !!!
लोग भगवान शिव का प्रसाद बोलकर यात्रा में बेतहासा नशा करते दिखे, नशा किसी भी रूप में ही नाश की निशानी है इससे बचकर रहे,

  अगली यात्रा की उम्मीद में 
   जय भोले भंडारी,  



पुरामहादेव 

जिसे परशुरामेश्वर भी कहते हैं उत्तर प्रदेश के मेरठशहर के पास, बागपत जिले से ४.५ कि.मी दूर बालौनी कस्बे में एक छोटा से गाँव पुरा में हिन्दू भगवान शिव का एक प्राचीन मंदिर है जो शिवभक्तों का श्रध्दा केन्द्र है। इसे एक प्राचीन सिध्दपीठ भी माना गया है। केवल इस क्षेत्र के लिये ही नहीं प्रत्युत्त समस्त पश्चिमी उत्तर प्रदेश में इसकी मान्यता है। लाखों शिवभक्त श्रावण और फाल्गुन के माह में पैदल ही हरिद्वार से कांवड़ में गंगा का पवित्र जल लाकर परशुरामेश्वर महादेव का अभिषेक करते हैं। 


जहाँ पर परशुरामेश्वर पुरामहादेव मंदिर है। काफी पहले यहाँ पर कजरी वन हुआ करता था। इसी वन में जमदग्नि ऋषि अपनी पत्नी रेणुका सहित अपने आश्रम में रहते थे। रेणुका प्रतिदिन कच्चा घड़ा बनाकर हिंडन नदी नदी से जल भर कर लाती थी। वह जल शिव को अर्पण किया करती थी। हिंडन नदी, जिसे पुराणों में पंचतीर्थी कहा गया है और हरनन्दी नदी के नाम से भी विख्यात है, पास से ही निकलती है। यह मंदिर मेरठ से ३६ कि.मी व बागपत से ३० कि.मी दूर स्थित है।
प्राचीन समय मे एक बार राजा सहस्त्र बाहु अपनी सेना के साथ शिकार खेलते हैं ऋषि जमदग्नि के इस आश्रम में पहुंचे, यहां ऋषि की अनुपस्थिति में कामधेनु गाय की कृपा से राजा का पूर्ण आदर सत्कार किया। राजा उस अद्भुत गाय को बलपूर्वक वहाँ से ले जाना चाहता था। परन्तु वह ऐसा करने में सफल नहीं हो सका। अन्त में राजा गुस्से में रेणुका को ही बलपूर्वक अपने साथ अपने महल हस्तिनापुर ले गया, तथा कमरे में कैद कर दिया, वहां रानी ने मौका देखकर अपनी छोटी बहन की सहायता से रेणुका को मुक्त करा दिया, रेणुका ने वापस आकर जब ऋषि को सारा वृतांत बताया तो ऋषि ने एक रात्रि पर पुरूष के साथ महल में रहने के कारण रेणुका को आश्रम छोड़ने का आदेश दिया, रेणुका ने अपने पति से प्रार्थना की वह पवित्र है आश्रम छोड़ कर नही जाएगी, चाहे आप अपने हाथों से उसके प्राण हर ले,
ऋषि ने अपने पुत्रों को माता का सर धड़ से अलग करने का आदेश दिया, परन्तु तीन पुत्रो ने मना कर दिया, चौथे पुत्र परशुराम ने पिता की आज्ञा को अपना धर्म मानते हुए माता का सर काट दिया, उन्हें इसका घोर पश्चताप था इसलिए उन्होंने वहां शिवलिंग स्थापित कर उसकी पूजा करते है घोर तपस्या आरम्भ कर दी, उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर आशुतोष भगवान शिव ने उन्हें दर्शन दिए और वरदान मांगने को कहा, परशुराम ने अपनी माता को पुनर्जीवित करने की प्रार्थना की, भगवान शिव ने उनकी माता रेणुका को पुनर्जीवित कर दिया, आशीर्वाद स्वरूप एक परशु (फरसा) दिया तथा कहा युद्ध मे जब भी इसका प्रयोग करोगे तो विजयी होंगे,

परशुराम जी वही पास के वन में एक कुटिया बनाकर रहने लगे। थोड़े दिन बाद ही परशुराम जी ने अपने फरसे से सम्पूर्ण सेना सहित राजा सहस्त्रबाहु को मार दिया। वे तत्कालीन क्षत्रियों के दुष्कर्मों के कारण बहुत ही क्षुब्ध थे, अतः उन्होंने पृथ्वी पर क्षत्रियों को मृत्यु दण्ड दिया व इक्कीस बार पूरी पृथ्वी को क्षत्रिय विहीन कर दिया। जिस स्थान पर शिवलिंग की स्थापना की थी वहां एक मंदिर भी बनवा दिया। कालान्तर मंदिर खंडहरों में बदल गया। 

   काफी समय बाद एक दिन लण्डौरा की रानी इधर घूमने निकली तो उसका हाथी वहाँ आकर रूक गया। महावत की बड़ी कोशिश के बाद भी हाथी वहां से नहीं हिला तब रानी ने सैनिकों को वह स्थान खोदने का आदेश दिया। खुदाई में वहाँ एक शिवलिंग प्रकट हुआ जिस पर रानी ने एक मंदिर बनवा दिया यही शिवलिंग तथा इस पर बना मंदिर आज परशुरामेश्वर मंदिर के नाम से विख्यात है।

इसी पवित्र स्थल पर जगद्गुरू शंकराचार्य स्वामी कृष्ण बोध आश्रम जी महाराज ने भी तपस्या की, तथा उन्हीं की अनुकम्पा से पुरामहादेव महादेव समिति भी गठित की गई जो इस मंदिर का संचालन करती है। 

काँवड़ यात्रा का प्रारंभ और इस से जुड़ी मान्यताएं

१,  मान्यता है कि सबसे पहले भगवान परशुराम ने बागपत के पास स्थित पुरा महादेव मंदिर में कावड़ से गंगाजल लाकर जलाभिषेक किया था। जलाभिषेक करने के लिए भगवान परशुराम गढ़मुक्तेश्वर से गंगाजल लेकर आए थे।

२, कुछ अन्‍य मान्‍यताओं के अनुसार सबसे पहले प्रभु श्री राम ने शिव का जलाभिषेक किया। कथा मिलती है कि श्रीराम ने बिहार के सुल्तानगंज से कांवड़ में गंगाजल भरकर, बाबाधाम में शिवलिंग का जलाभिषेक किया था।

३, कुछ विद्वानों का मानना है कि त्रेतायुग में श्रवण कुमार हिमाचल के उना क्षेत्र से अपने माता-पिता को कांवड़ में बैठाकर हरिद्वार लाए और उन्हें गंगा स्नान कराया था। वापसी में वे अपने साथ गंगाजल भी ले गए। और इसे ही कावड़ यात्रा की शुरुआत माना जाता है।

४, पुराणों के अनुसार समुद्र मंथन से निकले विष को पी लेने के कारण भगवान शिव का कंठ नीला हो गया और वे नीलकंठ कहलाए। विष के प्रभाव को खत्म करने के लिए लंका के राजा रावण ने कांवड़ में जल भरकर बागपत स्थित पुरा महादेव में भगवान शिव का जलाभिषेक किया था। यहां से शुरू हुई कावड़ यात्रा की परंपरा। वहीं कुछ के अनुसार विष के प्रभावों को दूर करने के लिए देवताओं ने सावन में शिव पर मां गंगा का जल चढ़ाया था और तब कांवड़ यात्रा का प्रारंभ हुआ।

५, हिंडन के तट पर स्थित इस मंदिर की स्थापना के बारे में माना जाता है कि इसे भगवान परशुराम ने स्‍थापित किया था। यही वजह है कि कांवड़‍ियों के लिए महादेव के मंदिर का खास महत्‍व है। 

इसी के साथ मेरे इस यात्रा वर्णन का भी अंत होता है, ये इस सीरीज की अंतिम कड़ी थी, टिप्पणी में अपनी प्रतिक्रिया जरूर दे, मेरे द्वारा उपलब्ध कराई गई जानकारी कैसी थी, जानकारियों के बारे में कोई मतभेद या अन्य मान्यताओं की जानकारी हो तो वो भी जरूर बताए, 

शुभेच्छाओ के साथ,

अतुल शर्मा 

( पगला पंडित )




Thursday, August 29, 2019

काँवड़ यात्रा : मेरा अनुभव (भाग ५)

अभी तक आपने भाग १ में यात्रा की तैयारियां, भाग २ में हरिद्वार पहुंचने की ट्रेन की यात्रा 
भाग ३ में काँवड़ यात्रा के पहले दिन हरिद्वार से नारसन की यात्रा
और भाग ४ में काँवड़ यात्रा के दूसरे दिन नारसन से मंसूरपुर की यात्रा पढ़ी, 

अब भाग ४ से आगे
 
रात में सड़क किनारे खुले आसमान के नीचे से थे, तो रात भर मच्छर ना खुद सोए ना हमे सोने दिया, तीसरे दिन की शुरुआत सुबह साढ़े तीन बजे उठकर दैनिक क्रियाओं शौच स्नान आदि से निवर्त होने के पश्चात करीब साढ़े चार या पांच बजे तक हमने आज की यात्रा शुरू कर दी, 

रात में काँवड़ यात्रियों में सुप्रसिद्ध नावला की कोठी पर रुकने का प्लान था लेकिन जैसा कि पहली पोस्ट में पढ़ा हम उस से पहले ही रुक गए, रात में निर्धारित हुआ कि हम नावला कोठी से नही बल्कि नावला गाँव से होते हुए जाएँगे, क्योंकि गाँव से जाना वाला रास्ता छोटा पड़ता था कपिल और चेतन के अनुसार, हालांकि मैंने गूगल मैप पर देखा तो गाँव वाले को थोड़ा बड़ा ही दिखा रहा था पर वो दोनों पहले भी कई बार आ चुके थे तो मैंने उनकी बात रखते हुए उसी रास्ते जाने का फाइनल कर दिया, 

इस रास्ते पर हमें हम जैसे इक्का दुक्का ही कांवड़िया मिले, करीब एक घण्टा चलने के बाद हम नावला गाँव पहुंचे अब भूख भी लग गयी थी तो यहां से नाश्ता करके चलने का प्लान किया, गाँव के बाहरी छोर पर ही एक दो दुकान थी लेकिन अभी बन्द थी, लेकिन एक चाय की टेम्परेरी दुकान चलती मिल गयी जो काँवड़ सीजन के लिए ही लगी होगी, लेकिन नाश्ते के नाम पर कुछ भी नही था खाने को, आसपास कोई जनरल स्टोर भी नही मिला ढूंढने से, लेकिन थोड़ा मेहनत करने पर एक मिठाई की दुकान पर पकौड़ो की तैयारी होती दिख गयी, थोड़ी देर लगी लगीं उसने हमें आलू के पकौड़े बना कर दे दिए, उबले आलू को नमक मिर्च मसाला मिला कर बेसन में डूबा कर तल कर, 
जब तक हम लेकर गए चाय भी बन गयी थी, गरमागरम चाय पकौड़ो से दिन की शुरुआत हुई, 

गाँव काफी लंबा और साफ सुथरा था अंदर भी कई जगह भंडारे और काँवड़ सेवा शिविर दिखे, धीरे धीरे इस रास्ते पर भी दो चार कांवड़िया दिखने लगे थे, लेकिन रास्ता गाँवो के अंदर से जा रहा था हम भी गाँव दर गाँव पर करते हुए आगे बढ़ रहे थे, मैं और बचपन का सहपाठी कपिल पीछे पीछे,  चेतन और कपिल आगे आगे, धीरे धीरे अब गैप बढ़ता जा रहा था कपिल बिल्कुल नही चल पा रहा था और उसके साथी उसे मेरे भरोसे छोड़ कर आगे निकल चुके थे बम्बे पर मिलने को बोलकर, अब मैं तो कपिल को अकेले छोड़कर आगे बढ़ नही सकता था तो मैं भी उसके साथ चलता रहा रुकाते रुकाते धीरे धीरे, 

हमे उम्मीद थी कि वे हमें बुढ़ाना खतौली मार्ग के क्रासिंग पर मिलेंगे वहां पहुंचकर कपिल ने चेतन को फोन किया तो वो आगे निकल चुके थे, थकान और गर्मी की वजह से अब रुकने का मन था तो हम वही एक ट्यूबवेल के बाहर पेड़ के नीचे अड्डा जमा कर बैठ गए, और फाइनल हुआ कि जाने वालों को जाने दो अभी अभूत समय है किसी भी तरह की कोई जल्दबाजी नही है हम आराम करके ही चलेंगे, फिर हमने वहाँ लेटकर आधा घण्टा आराम किया इस दौरान कपिल थोड़ा परेशान था कि उसे छोड़कर चले गए, क्योंकि वो लोग घर से ही साथ आए थे, उसकी हिम्मत जवाब दे रही थी तो मैं उसे बार बार समझा देता की कोई जल्दबाजी नही है अब तो आ ही गए है थोड़ा बचा है शाम तक पहुंच ही जाएंगे हम भी, 
   आराम करने के बाद हम वहां से चले आज भी गर्मी बहुत ज्यादा थी, गाँव का रास्ता होने की वजह से पेड़ तो मिल जाए रहे थे सड़क किनारे लेकिन आज हवा बिल्कुल बन्द थी, तो गर्मी कुछ ज्यादा ही लग रही थी, खैर हम भी थके हारे अब भूपखेरी पहुंच गए यहां से हमें पुरा महादेव के लिए नहर (बंबा) की पटरी पटरी जाना था, यहाँ कपिल और चेतन हमारी प्रतीक्षा कर रहे थे, लेकिन हम नहर की पटरी पर चढ़ चुके थे और वो पीछे रुके हुए थे, 
 हमारे यहां एक मान्यता है कि जल लेकर वापस नही जाते या पीछे नही हटते तो हमने काँवड़ को वही विश्राम दिया और हैं वापस उनके बताए जगह पहुंचे, वहाँ कुलदीप डेयरी वालो का दूध का भंडारा चल रहा था मेरी इतनी गर्मी में दूध पीने की बिल्कुल इच्छा नही थी लेकिन कपिल और चेतन हमारे लिए भी ले आये तो पीना पड़ा, 
   अब यहीं पंखे के नीचे डेरा जमाए और इस बार थोड़ा लंबा यानी एक दो घण्टे विश्राम का प्लान था, बाकियों का पता नही लेकिन मैंने यहां नींद की एक झपकी जरूर ले ली, बाकी समय फोन पर लगे लगे बिताया, 
  अब यहाँ से आगे बढ़े तो हमे बंबे की उतरी पटरी ही जाना था, मैंने यही सोच लिया था कि आज विश्राम गाँव मे ही होगा या तो मंदिर में या घेर में, सबको बता भी दिया था, नहर की पटरी पर कुछ देर हम साथ चले लेकिन फिर वहीं पुरानी कहानी कपिल को मेरे सहारे छोड़ चेतन और कपिल आगे निकल गए,

 अब हम कभी उनके साथ लह लेते कभी थोड़ा पीछे ऐसे ही चलते चलते हम पहुंच गए खेड़ी, उन्होंने बताया की यहां के कढ़ी चावल प्रसिद्ध है तो मैंने कहा खा कर चलेंगे, क्योंकि कढ़ी चावल मेरी कमजोरी है, नाम से ही मुँह में पानी आ जाता था, ये पहला भंडारा था जहां मैं स्वेच्छा से खाने के लिए रुका था, 
खेड़ी वही गाँव था जहाँ का निवासी  पहले दिन मिला संदीप था, उसने भी बताया था कि हमारे यहां का भंडारा काफी प्रसिद्ध है,
यहाँ कांवड़ियों के विश्राम की भी अच्छी व्यवस्था थी, आदर सत्कार सम्मान भी , और कढ़ी चावल तो वाकई स्वादिष्ट बन पड़े थे, मैने दोबारा भी लेकर खाए, साथ मे हरी मिर्च भी थी,



कढ़ी चावल खाकर हम यहाँ से जल्दी ही चल दिये, कोई एक दो किमी ही चले होंगे कि मेरे पैर में दर्द होंना शुरू हो गया, चार साल पहले दोनों पैर में प्लास्टर हुआ था सर्दी में अभी भी दर्द करने लगता है , अब मेरे लिए चलना दुर्भर हो चुका था, कपिल और चेतन अभी भी हमसे आठ दस कदम आगे थे कपिल मुझसे दो चार कदम पीछे, मैंने कपिल को बोला कि मुझसे चला नही जा रहा रुकना पड़ेगा वो बोला आगे रुकते है लेकिन मैं जैसे ही रुकने के लिए जगह दिखी वही बैठ गया उन्हें जाने दिया, बैठ कर पैर को थोड़ा घुमाया जोड़ ओर से, मूव लगाया और करीब ५ मिनट बैठने के बाद फिर चल पड़ा अब सब बिल्कुल सही था मैं अच्छे से चल पा रहा था, जल्दी ही मैंने कपिल को पीछे छोड़ दिया, जिसके लिए मैं सुबह से लुढ़क लुढ़क कर चल रहा था वो भी मेरे लिए नही रुका उसे खुद रुकना चाहिए था मुझे अच्छा लगता, 
मैं खुन्नस में इग्नोर करता हुआ आगे बढ़ गया, अब चल भी पहले से तेज रहा था, थोड़े आगे जाने पर कपिल और चेतन एक जगह आराम करते दिखे उन्होंने मुझे भी आवाज लगा ली तो मैं रुक गया, थोड़ी देर बाद कपिल भी पहुंच गया, अब अगली मंजिल सरूरपुर था हम अपने गाँव के काफी नजदीक पहुंच गए थे, तो गाँव जाने और रात्रि विश्राम की चर्चा होने लगे, मैं गाँव चलने के पक्ष में था, लेकिन चेतन गाँव नही जाना चाहता था, बाकी दोनो भी गाँव जाने के इच्छुक थे, सरूरपुर में विश्राम के दौरान ये फाइनल हो गया कि चेतन नही जाना चाहता उसने गाँव जाने से साफ मना कर दिया, लेकिन मुझे गाँव जाने का पूरा मन था तो मैंने उन्हें बोला तुम्हारी मर्जी जैसा करना हो , मैं तो गाँव ही जाऊंगा आज, तो मैंने गाँव के पड़ोसी और बाइक कांवड़िया को फोन कर दिया कि गाँव वाले रास्ते पर मिल जाना वहाँ से साथ मे पैदल गाँव चलेंगे, वो दो और साथियों गौरव एयर अंकित को लेकर मुझे रास्ते पर मिल गया, अब गौरव को बाइक लेकर वापस गाँव भेज दिया और मैं अंकित और राहुल तीनो खेतो के रास्ते पैदल गाव की और निकल लिए, 
कपिल और चेतन फिर कहाँ गए कहाँ रुके इस बारे में ना मैंने पुछा ना मुझे पता, 
घर पहुंचते पहुंचते अभी ६ बज गए थे, हमारे पहुंचने से पहले ही मेरे घर के बिल्कुल पड़ोस में गौरव के घर पर हमारे रुकने का इंतजाम था, 
वहाँ सभी जानने वाले पड़ोसी थे तो सबके पैर छूकर हम वही बैठ गए, सभी पड़ोसी चाय नाश्ते और रात के खाने में क्या खाओगे पूछने लगे इतनी सेवा देखकर मन प्रसन्न हो गया, गौरव के घर से चाय नाश्ता, अंकित के घर से डिनर और मेरे घर से रात में दूध आ गया, अब हम वहाँ पड़ोस के ही ६-७ कांवड़िया हो गए थे, 
मैंने सारा एक्स्ट्राआ सामान, कपड़े, घर पहुंचवा दिए, खुद घर नही गया क्योंकि हमारे यहां प्रचलन है कि कांवड़िया जल चढ़ाएं बिना घर नही आते, 
   रात को विश्राम के लिए हम सब लेट चुके थे तभी राहुल के किसी और जानने वाले का भी फोन आ गया जो दिल्ली काँवड़ लेकर जा रहा था और अभी हमारे गाँव के भंडारे में नारंगपुर पुलिया पर था, मिलने के लिए बुला रहा था, तो मैं और राहुल पहुंच गए, वहाँ करीब एक घंटा लगा हमे, 
   रात को सोने से पहले ही निश्चित हो गया था सुबह ढाई बजे उठकर चला है पूरा महादेव जलाभिषेक के लिए, जिसके लिए हम दिन दिन से इतना मेहनत कर रहे थे अब हम उस मंजिल के बिल्कुल करीब थे,
पुरा महादेव हमारे यहाँ से करीब १० किमी है तो हमे कोई चिंता नही थी, त्रियोदशी का चढ़ना शुरू हो चुका था और चतुर्दशी का कल दोपहर से होना था, 
  भयानक थके हुए थे तो लेटते ही नींद भी आ गयी, कई दिन बाद घर जैसी साफ सुथरे बिस्तर और आराम मिला था तो जम कर सोए, इस उम्मीद में कि सुबह ढाई बजे उठ जाएंगे...

क्या हम सुबह ढाई बजे उठ पाए जानने के लिए पढियेगा इस यात्रा की अगली और आखिरी कड़ी,

जल्द ही आएगा #भाग_६ #पुरामहादेव_जलाभिषेक
पढ़ते रहिए....

काँवड़ यात्रा : मेरा अनुभव (भाग ३)


काँवड़ यात्रा : मेरा अनुभव

#भाग_३ 
#पहला_दिन #हरिद्वार_से_नारसन
#भाग_२ #हरिद्वार_प्रस्थान से आगे

अभी तक आपने पढ़ा #भाग_१ में काँवड़ यात्रा की तैयारी, और #भाग_२ में दिल्ली से हरिद्वार पहुंचने का वर्णन, अब आगे

हर की पैड़ी पहुंचते ही गंगा मैया के दर्शन कर रात भर भीड़ भारी ट्रेन में खड़े होकर यात्रा करने की  थकान गायब हो गयी थी, गंगा मैया का जयकारा लगा कर हर की पैड़ी घाट पर पहला कदम रखा, ट्रेन में मिले सहयात्री ताऊ के साथ अब तक एक मौन समझौता हो गया था, क्योंकि जरूरत दोनो की थी, तो एक दूसरे के सामान की देख रेख और सहयोग से हम दोनों ने बारी बारी से गंगा स्नान किया, मैं काँवड़ यात्रा में बिल्कुल नया था तो मैं बस ताऊ की नकल कर रहा था, नहा धोकर, गंगा जल भरा और दीपक जलाया, प्रसाद चढ़ाया और गंगा जल कंधे उठाकर भोले का नाम लेकर काँवड़ यात्रा शुरू कर दी, समय था सुबह दो बजकर पंद्रह मिनट, 
घाट छोड़ने से पहले एक सेल्फी भी ली, 
यात्रा के शुरू में ही ताऊ ने अपने किस्से सुनाने शुरू कर दिए थे तो मुझे सुनते जाना था, ऐसे भी मैं कम ही बोलता हूँ तो मेरे पास सुनाने को कुछ था भी नही, 
ताऊ जब भी रास्ते मे तेज चलते या ज्यादा जल लेकर चलते काँवड़ यात्रियों को देखता तो मुझे हर बार बताता की इन सब की दुर्गति होने वाली है, अभी जोश है इसलिए दौड़ रहे है इतना वजन लेकर ज्यादा नही जा पाएंगे, ये ताऊ का वर्षो का अनुभव था, 
घर से मिली नसीहतों को ताऊ के ज्ञान से इतना अंदाज मुझे भी हो गया था कि मुझे किसी भी हालत में जल्दबाजी नही करनी है, अपनी चाल से चलना है, खैर बातो बातो में पहले ही झटके में कब रेलवे स्टेशन वापस निकला, कब रानीपुर मोड़, कब ज्वालापुर गया ये बस पता ही नही चला समझो, पहले ही झटके में हम सीधे बहादराबाद पहुंच गए, 
अब तक रास्ते मे हमे चलते हुए यात्री मिल रहे थे लेकिन यहां डीजे काँवड़, डाक काँवड़, का जमावडा लगा हुआ था, सड़क पूरी तरह जाम थी, सड़क और आसपास काँवड़ यात्रियों की गाड़ियां लगी हुई थी, वही सबका खाना पीना नहाना धोना सोना चल रहा था, 
यहां तक आते आते और आराम करती जनता को देख मुझे थकान वापस महसूस होने लगी थी तो मैंने रुकने को बोला, हमने भी वही एक चाय की दुकान पर दो खाली कुर्सी देखकर थोड़ा आराम किया ये ही कोई पांच मिनट, 
 कारण था हर ओर जंगली भेडियो का प्रकोप, ( जंगली भेड़िये सड़क किनारे अंधेरे में पानी की बोतल के साथ पाई जानी वाली दो चमकीली आंखों वाली एक विशेष प्रजाति है )
वहां थोड़ा आराम करने के बाद जल्दी ही दोबारा काँवड़ यात्रा शुरू हुई इस बार मेरी चलने की रफ्तार पहले से कम हो चुकी थी, अब ताऊ मुझे थोड़ा आगे चल रहे ठगे और मैं थोड़ा पीछे, एक दो किमी चलने के बाद थोड़ा उजाला होना शुरू हो गया था सड़क किनारे लगने वाली दुकाने सजने लगी थी, कल दोपहर से कुछ खाया नही था तो मुझे भूख लगने लगी थी, सड़क किनारे एक चाय के स्टाल पर पकोड़ी के लिए बेसन घोलते एक दुकानदार को देख मैं फिर से रुक गया, 
एक प्लेट पकोड़ी और दो चाय बोलकर हम वहीं बैठ गए इंतजार में, चाय पकोड़ी का इंतजार करते एक दो और कांवड़ियों से जान पहचान और थोड़ी बातचीत हुई सब अपने अपने अनुभव बता रहे थे गत वर्षों के एक मैं ही था जिसके पास पुराना कुछ नही था बताने को, तो मैं सवका ज्ञान सुनकर आने वाली यात्रा के लिए संजो रहा था, 
चाय पकौड़ी बनकर आ गयी थी, अब लग रहा था कि यहां बैठकर गलती कर दी, कारण चाय और पकोड़ी की शक्ल और स्वाद, जैसे तैसे खत्म की और आगे बढ़ गए, 
दिन निकलने के साथ ताऊ की रफ्तार तेज और मेरी धीमी होती जा रही थी, अब ताऊ कब कहाँ मेरी नजरो से ओझल हुए पता नही चला मैं अपनी चींटी की चाल से चलता रहा, 
समय फिन के करीब ११ बज गए थे अब अगला लक्ष्य रुड़की दिख रहा था, इसी बीच मुझे ताऊ दोबारा दिखे लेकिन इस बार मैं तो को इग्नोर कर आगे बढ़ गया, थोड़ा आगे जाने पर मुझे एक नया साथी मिल गया, नाम संदीप उपाध्याय, पेशे से अध्यापक, पड़ोसी गाँव खेड़ी के निवासी, संदीप से पहली मुलाकात चाय पकोड़ी के स्टाल अपर हुई थी, उनके साथी उन्हें छोड़कर फरार हो चुके थे अब वो भी अकेले थे और मैं भी, तो अब हम दोनों साथ हो लिए, रुड़की पहुंचने से करीब ३-४ किमी पहले हम भी चाय के लिए , हम चाय के लिए रुके और बारिश शुरू हो गयी जोकि करीब डेढ़ दो घंटे चली, हम जहां रुके थे वहां भी बारिश  से बचने का कोई खास इंतजाम नही था, जैसे तैसे थोड़ा भीगे थोड़ा बचते हुए हमने वहां समय पूरा किया बारिश का, बारिश रुकते ही अब हम दोबारा चल पड़े, लक्ष्य अभी भी रुड़की ही था, 

रुड़की पहुंचने की खुसी थी हम दोपहर तक रुड़की आ चुके थे, घर से चलने से पहले किसी ने कहा था पहले दिन रुड़की पहुंचना भी भारी हो जाता था हमारे पास अभी भी आधा दिन था, लेकिन अब हम तक चुके थे रुड़की में घुसते ही मेरी नजर किसी आराम करने लायक ठिकाने को ढूंढती चल रही थी, जहाँ मैं लेट कर कमर सीधी कर सकूं, जल्दी ही मेरी तलाश पूरी हुई, एक रेस्टोरेंट /ढाबे वाले ने अपने रेस्टोरेंट के साथ बड़े से हाल बरामदे में कांवड़िया के रुकने का इंतजाम किया हुआ था, साफ सुथरी जगह थी, ज्यादा भीड़ भी नही थी, मैंने संदीप को बोला यहीं आराम करते है दोपहर में अब शाम को चलेंगे, वो भाई मुझसे पहले ही थका हुआ था, वो भी तुरंत राजी हो गया,
 मैं तो पहले ही तैयार था, तुरन्त काँवड़ स्टैंड पर टिकाई, अंदर घुस कर ठीकठाक जगह देखी, बैग से बैठने के लिए खरीदी गई पॉलीथिन शीट निकाली, बिछाई और तुरंत फ्लैट.... थोड़ा आराम मिलते ही मुझे तो फटाक से नींद आ गयी , अपने संदीप भाई पेट से भी परेशान थे, जाँघे भी लग चुकी थी तो पता नही उन्हें नींद आई या नही, दो घंटे की बढ़िया वाली नींद निकालने के बाद जब मैं जगा तो संदीप पहले ही जगा हुआ था, मुझे जगा देखकर बोला सामान का ध्यान रखूं वो पेट खाली करने जा रहा है, उसके वापस आने तक मेरी नींद भी भाग चुकी थी, तो मैं भी उठकर थोड़ा बाहर निकला हाथ मुँह धुले, टंकी खाली की, फिर से चलने की तैयारी शुरू की, फिर सोचा कि ढाबे पर इतनी देर आराम किया है तो इसके यहां कुछ खा लेते है, देखा तो खाने में केवल एक ही ऑप्शन था छोले भटूरे, भयानक गर्मी में छोले भटूरे खाने की हिम्मत नही हुई तो फिर से एक एक चाय पीकर काँवड़ यात्रा शुरू कर दी, 
गर्मी अभी भी काफी ज्यादा थी, थोड़ा चलने में ही गर्मी और पसीने ने हालत खराब कर दी, जैसे तैसे रुड़की पर हुआ, रुड़की पर करना ही ऐसा लग रहा था जैसे सुबह से चल रहे है और रुड़की खत्म ही नही हो रहा, 
युहीं रुकते रुकाते चलते चलाते हम बढ़ते जा रहे थे और संदीप भाई अपने छोड़ कर जाने वाले साथियों से अभी तक गुस्सा थे, उनके साथी उन्हें मनाने को बार बार फोन कर रहे थे , वो फोन पर पहले उन्हें भला बुरा सुनाते फिर उनकी करामात मुझे बताते, दोपहर बाद जब हम चले थे तो हमारा लक्ष्य आज किसी तरह पुरकाजी पहुंचने का था, रात ११ बजे तक चलने का सोचा था, 
लेकिन शरीर अब चलने को मना करने लगा था, दोनो की हालत पतली हो चुकी थी, हम तीन चार किमी, कभी दो किमी चलकर वापस बैठ जाते, स्पीड भी अब बस रेंगने भर की ही रह गयी थी चलते चलते, 
पुरकाजी का लक्ष्य अब मुश्किल हो चला था, तो मन मे सोचा कि चलो पुरकाजी नही तो किसी तरह नारसन तक तो पहुंच ही जाए, अंधेरा हो चला था ज्यादातर कांवड़िया अब धीरे धीरे ठिकाने ढूंढने लगे थे, नारसन अब भी करीब दो तीन किमी बाकी दिख रहा था, खैर नारसन से पहले एकफ्लाईओवर पड़ता है उसको पर करते ही मुझे एक अच्छी की कोठी दिखाई दी जिसमे कांवड़ियों के रुकने का इंतजाम था और साफ सुथरी भी लग रही थी, हालांकि अभी हमारा रुकने का कोई प्लान नही था लेकिन जगह देख कर मुझे लालच आया और मैन संदीप को बोला आगे ऐसी जगह शायद ही मिले, रात हो चुकी है तो जितना भी आगे बढ़ेंगे रुकने वालो की भीड़ ज्यादा ही मिलेंगी तो जगह मिलना भी मुश्किल होगा क्यो ना यहीं आराम किया जाए, 
अंदर घुसे जगह देखी तो हमारा रुकना फाइनल हो गया, और हम अपनी काँवड़ को भी विश्राम करा कर, बिस्तर लगा दिए, हालांकि अब भूख भी लग गयी थी और खाने का समय भी हो चला था, 
हाथ मुँह धुलकर जैसे ही हम आराम करने को लेटे फिर मुझे ना भूख याद रही ना प्यास, पांच मिनट के अंदर ही नींद आ गयी , 

इस तरह यात्रा के पहले दिन का समापन हुआ, यात्रा अभी जारी है...
क्रमशः...

Wednesday, August 28, 2019

काँवड़ यात्रा : मेरा अनुभव (भाग ४)

काँवड़ यात्रा : मेरा अनुभव

#भाग_४

#दूसरा_दिन
#नारसन_से_मंसूरपुर

अभी तक आपने पढ़ा,
#भाग_१ #यात्रा_पूर्व_तैयारी
#भाग_२ #हरिद्वार_प्रस्थान
#भाग_३ #हरिद्वार_से_नारसन #पहला_दिन

अब #भाग_३ से आगे
हाँ तो यात्रा के पहले दिन हमने नारसन से पहले शाम को लगभग ८ बजे काँवड़ को विश्राम दिया, लेटने की जगह का इंतजाम होते ही साढ़े आठ बजे तक ही मुझे भयानक नींद आ गयी, सीधे सुबह तीन बजे नींद खुली, तब तक धीरे धीरे लोग जगने  शुरू हो चुके थे,
मेरे साथी संदीप अभी भी सोए है थे, मैंने सोचा अभी सोने देता हूँ पहले फ्रेश हो लेता हूँ तब जगाऊंगा, लेकिन टॉयलेट के बाहर पहले से ही लाइन लगी हुई थी, जगने के बाद मुझसे इंतजार नही होता तो मैंने बैग से पानी की बोतल निकाली, संदीप को जगाया और मैं सुबह ताजी हवा में प्रातःकालीन भ्रमण पर निकल गया किसी गुप्त जगह की तलाश में, रात में ठहरने से पहले ही देखा था कि आसपास खेत हैं तो मुझे उम्मीद थी मेरी समस्या का हल हो जाएगा, थोड़ी मेहनत के बाद मैं सड़क के दूसरी पार एक खेत मे पहुंच गया जहाँ मेरे जैसे ही खुले में शौच करने दो चार बंधु और भी थे, हालांकि अभी अंधेरा था जोकि खुले में शौच के लिए आदर्श स्थिति है,
इस पूरे प्रक्रिया में मुझे लगभग आधा घण्टा लग गया उसके बाद मैंने संदीप को भी उस स्थान का पता दिया और जल्दी वापस आने को बोला, अब नहाने की बारी थी तो उसका वहां उचित इंतजाम था, फटाफट  बारी बारी से हम दोनों नहाकर आए और सुबह की धूप बत्ती जला कर काँवड़ को प्रणाम कर भोले बाबा का स्मरण करते हुए दूसरे दिन की यात्रा शुरू की, समय हो चुका था साढ़े चार,
सुबह का समय था चलने के लिए अनुकूल था, लेकिन रात में मैंने खाना नही खाया था तो भूख भी जल्दी ही लग गयी, एक घण्टे में करीब पांच किमी चलने के बाद एक चाय की टपरी पर सुबह की चाय पी, और फिर आगे की यात्रा शुरू, अबकी बार फिर से करीब एक घण्टा चलने के बाद हम लोग पुरकाजी पहुँच गए, पुरकाजी में फिर थोड़ा आराम करने का मन बनाया, एक दुकान के बाहर बैंच पड़ी देख कर हम वहीं बैठ गए , मैं जेब से फोन निकाल कर फोन में व्यस्त हो गया, फोन पर गाँव के पड़ोसी हिमांशु गुप्ता की मिस्ड कॉल थी, पहले साथ मे आने का प्लान था लेकिन व्यस्तताओं के चलते साथ नही आ पाया था, और मेरे एक दिन बाद गाँव के सबसे तेज कांवड़िया के साथ आया था,
बात होने पर पता चला कि पुरकाजी में गुप्ता चांट भंडार की चांट प्रसिद्ध है वो जरूर खाना, मैंने बोला कि वो तो पीछे छूट गयी क्योंकि एक बड़ी सी गुप्ता चांट भंडार पीछे छूट चुकी थी बाईपास पर,
बात खत्म करके मैं काँवड़ उठाने के लिए हाथ धो रहा था नल पर, तभी पास के गुजरते एक लोकल से पूछा गुप्ता चांट भंडार कहाँ पड़ता है, तो उसने उंगली सामने की तरफ उठा कर बताया ये रहा,
मुझे हँसी आ गया हम पुरकाजी की प्रसिद्ध गुप्ता चांट भंडार के सामने ही बैठ कर उसी का पता पूछ रहे थे, दरअसल दुकान छोटी सी और बड़ी साधारण सी थी देखने मे, इसलिए उस और ध्यान ही नही गया, मैंने संदीप को बोला भी यहाँ से चांट खाकर ही चलेंगे बड़ी प्रसिद्ध दुकान है, ये बोलकर मैं उसे आने का इशारा करते हुए दुकान की और बढ़ गया, और दो प्लेट टिक्की चांट का आर्डर दिया, इतनी सुबह बाकी शहरों में शायद की चांट पकौड़ी की कोई दुकान खुलती हो लेकिन यहाँ दो दो गुप्ता चांट भंडार बिल्कुल बगल में खुली थी, दोनो ही असली, दोनो पर गुप्ता जी का फोटो, मुझे देखने मे जो दुकान ज्यादा पुरानी लगी मैं उसी पर गया था,
कई तरह की चांट उपलब्ध थी और इतनी सुबह ही खाने वाले भी, चांट वास्तव में अपनी नाम के अनुरूप थे निराश नही होना पड़ा, मजा आ गया, एक प्लेट में ही पेट भी फुल हो गया, अब हम तैयार थे आगे की काँवड़ यात्रा के लिए, 





  पुरकाजी से निकलते हुए घर से फोन आ गया तो मैं फोन पर बात करते हुए चलने लगा, शायद अब हमारी चलने की गति में अंतर आ चुका था क्योंकि संदीप पहले ही दिन से जाँघ लगने से परेशान था, मैंने देखा वो मुझे ८-१० खत्म पीछे चल रहा था, मैं फिर फोन पर बात करते चलता रहा बात लंबी चली, बात खत्म करके देखा तो संदीप पीछे दूर दूर तक कहीं नही दिख रहा था, फिर मैंने सोचा थोड़ा धीरे धीरे चलता हूँ आ जाएगा, यदि कोई बैठने लायक जगह दिखी तो बैठकर इंतजार करूँगा, आगे एक गाँव मे एक दुकान के बाहर सड़क किनारे तख्त पड़ा था तो मैं वहीं बैठ कर इंतजार करने लगा, करीब आधा घण्टा बैठा रहा लेकिन संदीप कहीं नही दिखा,
हालांकि हम दोनों कल से साथ थे लेकिन अभी तक दोनो में से किसी का भी फोन नम्बर नही लिया था, जिसकी जरूरत अब मुझे महसूस हो रही थी, फोन नम्बर होता तो बात कर लेता की कहाँ हो,
आधा घण्टा इंतज़ार करने के बाद भी जब संदीप नही दिखा तो मैंने दोबारा चलना शुरू कर दिया ये सोच कर की शायद यहीं तक साथ था, अब मैं बिल्कुल अकेला था यूं तो सड़क पर लाइन लगी हुई थी कांवड़ियों की लेकिन कोई जानने वाला साथ नही था,
मैं धीरे धीरे मंजिल की और बढ़ने लगा, मेरी पानी की बोतल खाली हो चुकी थी और प्यास लगी थी तो रास्ते मे कोई दुकान दिखने का इंतजार करने लगा, फिर एक जगह शिकंजी की दुकान दिखाई पड़ी तो सोचा चलो शिकंजी पीता हूँ और बैठ गया, शिकंजी पीते ही मुझे पता नही क्या हुआ भयानक नींद आने लगी, आँखों के कहने से मना कर दिया और मैं लगभग नींद की बेहोसी में चला गया, थोड़ी देर बाद जब आंख खुली तो मैं वहीं कुर्सी पर बैठा था मैं चलने की तैयारी कर ही रहा था कि सामने से संदीप जाता हुआ दिखा मैंने आवाज लगाई जल्दी जल्दी समान समेटा और फिर से साथ लग लिया, पीछे क्या क्या कैसे हुआ कहाँ बिछड़े कहाँ कहाँ इंतजार किया इसकी बात हुई, और साथ चलने लगे, अगले पांच मिनट में ही बरला टोल के पास बन्दा फिर से गायब आगे मुझसे निकला नही था इसके लिए मैं पूरी तरह आश्वस्त था, पीछे दूर दूर तक भी दिख नही रहा था, थोड़ा इंतजार भी किया लेकिन फिर भी नही दिखा, मैंने सोचा शायद अब वो चल नही पा रहा है और साथ नही रहना चाहता इसीलिए बार बार पीछे जान बूझकर रुक रहा है तो मैं आगे बढ़ गया,
बरला आते आते धूप भी तेज हो चुकी थी और थोड़ी थकान भी, अकेला था तो चलने में मजा भी नही आ रहा था, फोन पर गूगल मैप देख कर एक के बाद एक छोटी छोटी मंजिल सेट करता कि यहां तक जाना है, शायद करीब १२ बजे होंगे छपार में मेरे सहकर्मी और फेसबुक मित्र Rishi Dixit जी का फोन आया उन्होंने बताया  छपार इंटर कॉलेज में अच्छा इंतजाम होता है रुकने के लिए, सब व्यवस्था बढ़िया होती है तो मैंने सोचा कि चलो यहीं देखते है लेकिन अब चलने में वापस मजा आने लगा था,
छपार इंटर कॉलेज के भंडारे पर पहुंचा तो वहां वास्तव में इंतजाम तो जबरदस्त थे लेकिन भीड़ भी काफी थी और मैं अभी चलने में सक्षम महसूस कर रहा था, मैंने सोचा जब चल सकता हूँ तो रुकना क्यो है आगे कहीं देख लेंगे और मैं बढ़ गया,
छपार पार करते ही मुझे अपनी गलती का अहसास हुआ, छपरा निकलते ही सड़क पर धूप बहुत ही ज्यादा तेज थी, पेड़ सड़क के किनारे से गायब थे एक किमी चलने ही मेरे प्राण गले आ गए, मैं बैठने के लिए जगह ढूंढने लगा लेकिन यहां दूर डर तक दुकान भी नही दिख रही थी सड़क किनारे, मैं भगवान को याद करते आगे बढ़ रहा था, ये मेरी यात्रा का सबसे निराशाजनक दौर था हिम्मत जवाब दे रही थी, मन मे ख्याल भी आया कि लटक लूँ गाड़ी में 😋, लेकिन मैं हिम्मत जुटा कर चलता रहा, किसी तरह सड़क किनारे लगी एक दुकान दिखाई दी लेकिन वहां बैठने को भी जगह नही थी लेकिन मैंने फिर भी वही थोड़ी छांव देखकर एक कोने पर बैठ गया, गर्मी ज्यादा थी जगह कम थी, धूप तेज थी लेकिन हिम्मत जवाब दे चुकी थी इसलिए मैं वहीं बैठा रहा, थोड़ा आराम करने के बाद हिम्मत जुटाई की शायद आगे कहीं ठीक जगह मिल जाए तो कमर सीधी करता हूँ लेटकर, सोचकर मैंने सामान समेटा तो कंधे पर पड़ा गमछा गायब था, आसपास देखा नही दिखा, शायद पीछे रास्ते मे कहीं गिर गया होगा और मुझे पता नही चला, मैं सामान समेटकर आगे बढ़ गया,
धूप और गर्मी से परेशान मैं आगे बढ़ता जा रहा था किसी ठीक ठाक ठिये के इंतजार में, तभी मेरी मुलाकात गाँव के ही तीन लड़को से हुई जिनमे मेरा एक बचपन का सहपाठी कपिल त्यागी, उसका चचेरा भाई चेतन, और मेरे खेत का पड़ोसी कपिल थे, जानने वालों को देखकर थोड़ा हौंसला आया , बात करते हुए हम साथ साथ आगे बढ़ने लगे बातो में थकान और गर्मी भूल गया, फिर हम मेन हाइवे से उतरकर सिसौना गाँव की और जाने वाले रास्ते से बढ़े, सिसौना में ही एक घर के बाहर चबूतरे पर पेड़ के नीचे हमने डेरा जमाया, जगह साफसुथरी थी, शांत भी थी, और हम थके हुए भी थे तो सब कमर सीधी करने लगे, करीब आधा घंटा वहां आराम करने के बाद हम मुजफ्फरनगर के लिए बढ़ गया क्योंकि लंबे वाला आराम अब वहीं होना था,
नए मिले गाँव वाले तीन दोस्तो में कपिल घायल था उसके पैर में सूजन थी डंडे के सहारे चल रहा था, मुजफ्फरनगर में घुसते ही रेलवे लाइन के अंडरपास के पास ही एक खेत मे हमने अपना डेरा जमा दिया दोपहर के आराम का, सड़क के दूसरी और भंडारा भी था लेकिन सड़क से थोड़ा हटकर था तो हम वहां नही गए, वहीं सबने खेत मे एक एक नींद ली, कमर सीधी हुई शरीर थोड़ा फ्रेश, अब दोपहर भी थोड़ा उतर चुकी थी,
अगली मंजिल था शिव चौक, मुजफ्फरनगर पहुंच कर अपनेपन का अहसास हुआ, यहाँ शानदार आदर सत्कार मिला जगह जगह, वैसे भी दो साल रहा हूँ मुजफ्फरनगर में तो अपना सा लगा, यहां लोगो मे उत्साह था, रौनक थे, यहां कांवड़िया केवल ग्राहक नही थे वे कांवड़िया ही थे,
शिव चौक पर परिक्रमा की, जयकारा लगाया , हाथ जोड़े एयर आगे बढ़ गए, मुजफ्फरनगर काफी लंबा बसाया हुआ है अभी भी कई किलोमीटर बाकी था, कंपनी बाग आते आते थकान लगने लगी तो फिर आराम करने का प्लान किया सड़क किनारे वहीँ पेड़ो की छांव देखकर बैठ गए, जैसे तैसे मुजफ्फरनगर पर हुआ अब हमारी आज की मंजिल थी नावला की कोठी, नावला पहुंच कर आज का रात्रि विश्राम करने का, हम धीरे धीरे आगे बढ़ रहे थे और थकान भी, अब भी मन्जिल दूर थी,
  आज फिर वो ही ८ बजे हम मंसूरपुर पहुंच कर खाने का इंतजाम देखने लगे एक ढाबे पर रुके खाने के लिए क्या क्या उपलब्ध है पूछा लेकिन वहां अभी कुछ तैयार नही था, फ़ास्ट फ़ूड थे लेकिन खाना बनने में अभी टाइम लगता तो आगे बढ़ गए आगे चलकर एक ढाबे पर तवे वाली रोटियां बनती दिखी, वहां पूछा तो सब तैयार था, ऑप्शन केवल थाली कीमत ५० रुपये, आलू टमाटर, आलू गोभी, कढ़ी, पीली दाल, अरहर दाल में से कोई तीन सब्जी, चार रोटी और चावल,
सबने भर पेट खाया खाना अच्छा था, वैसे हरी मिर्च भी देने वाला था लेकिन हम मांगते रहा गए खाना खा लिया लेकिन उसकी हरि मिर्च नही आई,
अब खाना खा कर हम करीब तीन किमी ही चले होंगे सब को आलस आने लगा तो हम एक नए आज रात यहीं रुकने का प्लान किया नावला अभी भी करीब ४ किमी बाकी था, सड़क के किनारे एक अच्छा खासा भंडारा था लेकिन जगह नही थी वैसे भी हम चार थे तो काफी जगह चाहिए थी अकेले तो कहीं भी एडजस्ट हो जाते, तो भंडारे के बाहर सड़क किनारे ही बिस्तर लगा दिया, आज की यात्रा का तो यहां विश्राम हो गया लेकिन मेरा विश्राम ना हो पाया, पूरी रात मच्छरों ने जम कर सेवा की मेरी,

#भाग_५ में जारी .....

काँवड़ यात्रा : मेरा अनुभव (भाग २)

काँवड़ यात्रा : मेरा अनुभव 

#भाग_२

#भाग_१  #यात्रा_पूर्व_तैयारी से आगे,

#हरिद्वार_प्रस्थान

सभी जरूरी सामान जुटाने के बाद, मेरा कार्यक्रम २६ तारीख की शाम को दिल्ली से हरिद्वार के लिए प्रस्थान करने का था, बस मार्गो पर भीड़, जाम, रूट डाइवर्जन का कोई भरोसा नही था तो मेरी प्राथमिकता रेल मार्ग से जाना था, सीट आरक्षित कराने का सोचा तो किसी भी ट्रेन में कन्फर्म सीट मिलने का कोई चांस नही था, अंततः सामान्य श्रेणी से यात्रा के लिए जाना ही निर्धारित हुआ, आफिस में २६ जुलाई की  प्रातःकालीन सेवा समाप्त करने के बाद घर पहुँच कर तुरन्त हरिद्वार के लिए प्रस्थान करना था, ढाई बजे तक घर पहुंचा फिर खाना खाया, अंतिम बार सभी जरूरी सामान देखा रखा, और नहा कर घर के मंदिर में भगवान के सामने हाथ जोड़कर माँ बापू के चरण स्पर्श कर हरिद्वार के लिए निकल लिया, समय साढ़े तीन हो चुका था, मेट्रो में सवार होकर उपलब्ध ट्रेनों के लिए जानकारी ली, घर से दिल्ली ऋषिकेश पैसेंजर से जाने का प्लान करके निकला था लेकिन उससे पहले दिल्ली सहारनपुर हरिद्वार डेमू जाने वाली थी तो तुरंत UTS से टिकिट बुक किया, 
दिल्ली रेलवे स्टेशन पहुंचा तो ट्रेन प्लेटफार्म नम्बर  ७ पर लग चुकी थी, चलने में कुछ ही मिनट शेष थे, थोड़ी मेहनत के पश्चात एक कोच में सीट का सीट जुगाड़ भी हो गया, हम भी बैठ गए बैग को गोद मे दबोचे, क्योंकि बहुत जल्द भयानक भीड़ होने वाली थी, 
ट्रेन लगभग अपने नियत समय पर प्रस्थान कर गयी आने वाले प्रत्येक स्टेशन पर भीड़ बढ़ती जी रही थी और मैं सिकुड़ता, मेरठ आते आते रोजाना वाली यात्री लगभग समाप्त हो गए और कांवड़िया पूरी ट्रेन में भर चुके थे, मैं अभी तक भी अपनी सीट पर काबिज था, 
लेकिन ये सीट शायद ज्यादा देर मेरे पास नही रहने वाली थी उसी डिब्बे में ठीक मेरे सामने एक महिला अपने चार छोटे बच्चों के साथ जैसे तैसे खड़ी थी जिनमे से एक को मैं पहले ही अपने साथ एडजस्ट कर चुका था, भीड़ में उनकी हालत देख कर दया तो आ रही थी लेकिन सफर लम्बा था इसलिए मैं भी सोच रहा था सीट गयी तो फिर पूरे रास्ते खड़े ही जाना पड़ेगा और रात में हरिद्वार पहुंच कर मुझे तुरंत ही वापस पैदल काँवड़ यात्रा भी आरम्भ करनी है तो मैं सीट पर जमा हुआ था, लेकिन अनंत भीड़ में उनके खड़े रहने की हिम्मत जवाब दे गई तो वे मेरे पैरों के बीच मे बैठने की कोशिश करने लगी, अब मेरी  बेशर्मी का घड़ा भी शायद भर गया था तो मैंने उन्हें अपनी सीट दे दी लेकिन इस के साथ ये भी बोल दिया कि यदि मुझे जरूरत होगी तो मुझे बैठने देना, 
अब वो बेचारे हर स्टेशन पर मुझे बैठने के लिए पूछने लगे लेकिन मैं थोड़ा हिम्मत जुटा कर हर बार मना करता रहा और अपने खड़े होने के लिए दीवार के सहारे जगह बना ली थी, सहारनपुर आते आते मुझे भी बैठने की जरूरत महसूस होने लगी, पैर तक चुके थे उन्होंने फिर पूछा तो मैंने बैठने के लिए हां कर दी, इस से पहले की  मैं बैठ पाता मेरे थोड़ा खिसकते ही मेरे पैरों के पास बैठे एक बाबा तुरंत लेट गए अब वहां मेरे खड़े होने लायक भी जगह नही बची, तो वो तीन वहां कैसे खड़े हो पाते तो मैं फिर खड़ा ही रह गया, अब ये लगभग फाइनल हो चुका था कि मुझे हरिद्वार तक खड़े हुए ही जाना है वो भी एक पैर पर, जैसे जैसे हरिद्वार नजदीक आ रहा था ट्रेन में भोले शंकर के जयकारे बढ़ते जा रहे थे, 
खैर जैसे तैसे ट्रेन करीब एक बजे हरिद्वार पहुंच गई अपने निर्धारित समय के एक घंटा की देरी के साथ, ट्रेन में ही अधेड़ सहरात्री जो सकौती से आए थे उनसे थोड़ी बातचीत हुई वो अकेले थे एक कागज पर किसी का नंबर लिखा कर लाए थे जो उनके गाँव से ही थे और काँवड़ लेने आए हुए थे, रास्ते मे तीन बार फोन मांग कर वो उनसे बात कर चुके थे कि कहाँ पहुंचे तो इतना मैं भी जान गया था वो काँवड़ लेने ही जा रहे थे, 
ट्रेन से उतरते ही वो मेरे साथ ही रहे, मुझे भी एक साथी की जरूरत थी जो नहाते समय मेरे समान की देखरेख कर सके, हालांकि वे भी अनजान थे लेकिन थोड़े संसय के साथ मैंने उन्हें साथ रहने दिया, 
ट्रेन से उतरकर बाकी यात्रियों की तरह हम भी पैदल हर की पैड़ी की और चल दिये, हर की पैड़ी पहुंच कर सबसे पहले हमने बाकी सामान जुटाया जैसे काँवड़ बैग, जल की कैनी, एक बड़ा भगवा गमछा, प्रसाद , धूप, और बैठने सामान रखने के लिए एक पॉलीथिन सीट, 
हर की पैड़ी पहुंचते ही सारी थकान भाग चुकी थी, भोले बाबा का जयकारा लगाते हुए मैं भी गंगा मैया को प्रणाम करके घाट पर पहला कदम रखा, 

#भाग_३ में जारी....

Monday, August 19, 2019

काँवड़ यात्रा : मेरा अनुभव (भाग १)

काँवड़ यात्रा : मेरा अनुभव
#भाग_१

#काँवड़_तैयारी_स्पेशल 
#यात्रा_पूर्व_तैयारी

हाँ तो दोस्तो जैसा कि मेरे सब फ़ेसबुकिया मित्रो को जानकारी होगी कि इस बार मैं पहली बार काँवड़ यात्रा पर गया, करीब १५ दिन पहले मन मे काँवड़ यात्रा का प्लान आया, फाइनल हुआ करीब करीब एक सप्ताह पहले, फिर फ़ेसबुकिया मित्रो से सलाह सुझाव जुटाने के बाद ऑफिस में छुट्टी के लिए अप्लाई किया, और छुट्टी भी मिल गयी जाने से एक दो दिन पहले, 

जाने का प्लान कन्फर्म होते हुए ही तैयारियों का दौर शुरू हुआ, शारीरिक रूप से कोई भी तैयारी करने के लिए शायद एक सप्ताह का समय काफी कम था इसलिए मैंने भी इस और कोई ध्यान नही दिया, तैयारी के नाम पर जरूरत के सामान जुटाना शुरू किया, इसलिए लिए कुछ ऑनलाइन शॉपिंग की जो डिलीवरी एक या दो दिन में दे रहे थे केवल वही सामान खरीदे, क्योंकि मैं एक नम्बर का आलसी जीव हूँ इसलिए मार्किट जाकर शॉपिंग करने से बेहतर मुझे ऑनलाइन ही लगता है और इसी का आदि हूँ, 

#जरूरी_सामान
जरूरी सामान में एक छोटा वाटरप्रूफ बैग, जो वजन में भी हल्का हो, एक मजबूत टिकाऊ बेल्ट नुमा पेटी (कमर पर बांधने वाला बैग) जाँघ पर पहनने वाली पट्टियां, पिंडलियों पर पहनने वाली पट्टियां, पैर यानी तलुवे पर पहनने वाली पट्टियां (सबसे ज्यादा जरूरी), हल्के सूती कपड़े, दो से तीन जोड़ी (लोअर टीशर्ट हो तो बेहतर), दो बड़े लेकिन हल्के और सूती गमछे तौलिये, दवाइयां ( जिनमे पेनकिलर, बुखार, दस्त , दर्द निवारक ट्यूब स्प्रे, और जाँघ लगने पर लगाने वाली ट्यूब प्रमुख है) यदि मोबाइल ले जा रहे है तो अच्छी कैपिसिटी का पावर बैंक और चार्जर, और सबसे जरूरी सामान पैसे रखना ना भूले,

इन सब से पहले यदि कुछ चाहिए वो है अटूट श्रद्धा और ईश्वर और खुद से ज्यादा विश्वास, यात्रा के दौरान कई ऐसे दौर भी आएंगे जब आप मानसिक और शारीरिक रूप से थक चुके होंगे तब ये विश्वास ही आगे बढ़ने की हिम्मत देगा अन्यथा आप लिफ्ट लेकर या बस ट्रेन पकड़ कर यात्रा बीच मे छोड़ने से गुरेज नही करेंगे, 

#जरूरी_समय

यात्रा शुरू करने से पहले खुद की क्षमताओं का आंकलन बेहद जरूरी है, आपका रहन सहन दिनचर्या किस तरह की ये बेहद महत्वपूर्ण है, 
यदि शहरी आप आराम तलब जिंदगी जी रहे है तो रोजाना ३० किमी से ज्यादा का लक्ष्य बिल्कुल ना रखें, 
यदि दैनिक जीवन मे शारीरिक श्रम भी करते है तो ३० से ४० किमी प्रतिदिन तक जा सकते है इस से ज्यादा नही, 
यदि कठिन शारिरिक श्रम के आदि है तो ४०-५० किमी तक चल सकते है, 
यदि अत्यधिक कठिन श्रम करते है तब ही ५० किमी से ज्यादा चलने के बारे में सोचे, इसके लिए  आपकी चलने का अच्छा खासा अनुभव होना चाहिए, हल चलाने वाले किसान जैसा मेहनतकश ही इस बारे में सोच सकता है,

अब अपनी तय की जाने वाली दूरी और अपनी क्षमता के हिसाब से समय का आकलन कर एक अतिरिक्त दिन लेकर यात्रा प्रारंभ कर सकते है, 

#सुझाव

यात्रा के आपके साथ किसी साथी का होना जितना जरूरी है उस से ज्यादा जरूरी है साथी के साथ सामंजस्य, किसी के भी साथ जाने का तभी निर्णय ले जब आओ दोनो एक दूसरे के साथ हर परिस्थिति में साथ रह सकते हो, क्योंकि चलते हुए आप को एक दूसरे का साथ देना होगा,  सबकी स्पीड होती है आप अपनी रफ्तार से कम चलेंगे तो भी थकान जल्दी महसूस करूंगी और तेज चलेंगे तब भी, ऐसे में आपका धैर्य अवश्य जवाब दे जाएगा और आप साथियों को छोड़कर या साथी आपको छोड़कर फरार हो जांएगे और ऐसे में आपका मनोबल ध्वस्त हो जाएगा, 

यदि अकेले जाने का साहस जुटा सकते है तो शायद ये सबसे बेहतर होगा


 #भाग_२ में जारी..