भाग ६ अंतिम कड़ी
पुरामहादेव जलाभिषेक
अभी तक भाग १ में यात्रा की तैयारी, भाग २ में दिल्ली से हरिद्वार ट्रेन यात्रा का विवरण, भाग ३ में काँवड़ यात्रा के पहले दिन हरिद्वार से नारसन का सफर, भाग ४ में यात्रा के दूसरे दिन नारसन से मंसूरपुर तक, और भाग ५ में तीसरे दिन मंसूरपुर से अपने गाँव रासना तक की यात्रा पढ़ी,
अब आगे
पिछले भाग के अंत मे आपने पढ़ा कि हम सुबह ढाई बजे जगने का निर्णय करके सो गए, घर के साफ सुथरे बिस्तर, हवा और अच्छे खाने की वजह से अच्छी नींद आई, सुबह ढाई बजे एक बार मेरी नींद खुली मैंने पहले फोन में टाइम देखा फिर आसपास, सब मस्त सोए पड़े थे, मैं भी चुपचाप चद्दर वापस ढक कर सो गया, थोड़ी देर बाद तीन बजे बाहर से मम्मी की आवाज आई, जो इतनी सुबह उठकर हमे जगाने आ गयी थी, अब तो जगना ही था तो धीरे धीरे सब जगे और दैनिक क्रियाओं से निपटकर पुरा महादेव जलाभिषेक के लिए निकल पड़े, निकलते निकलते ५ बज गए थे, पुरा महादेव हमारे यहां से करीब १०-११ किमी है तो हमने ८ बजे तक पहुंचने का अनुमान लगाया,
धीरे धीरे चलकर और रास्ते मे दो जगह रुककर भी 8 बजे से पहले ही पुरा पहुंच गए, मेला परिसर में एक जानकर की दुकान पर अतिरिक्त सामान और जूते चप्पल रखकर हम सब मंदिर परिक्रमा और जलाभिषेक के लिए लाइन में पहुंचे, अब तक भीड़ काफी बढ़ चुकी थी
बाहरी परिक्रमा के बाद जब मुख्य लाइन में पहुंचे वहां भीड़ भयानक थी, यहां से लाइन बड़े धीमे से खिसक रही थी, किसी तरह मंदिर के प्रवेश द्वार तक पहुंचे, यहां बैरिकेट अलग ही तरीके से लगाया गया था जिसके नीचे से बैठ कर जाना था, जिसकी उचाई कमर से भी नीचे थी, इतनी भीड़ धक्कामुक्की में उसके नीचे से निकलना अपने आप मे चुनोतिपूर्ण था, ये भगवान का आशीर्वाद या कृपा ही समझ लो यहां कोई हादसा नही हुआ,
भीड़ में जैसे तैसे मसक्कत करते हुए हम भी मुख्य मंदिर में पहुंचे शिवलिंग का जलाभिषेक किया, जलाभिषेक करते सेक्युरिटी ने आगे ढकेल दिया, मंदिर के मुख्य निकास द्वार पर बाकी साथियों के आने की प्रतीक्षा की कुछ मुझ से पहले आ चुके थे एक दो बाकी थे,
अब बारी थी मेला घूमने की, तो निश्चित हुआ कि मेला जिसका जैसे मन है घूमे और घूमकर अंत मे सब उसी दुकान पर मिलेंगे जहां सामान और जूते चप्पल रखे है, तो हम लोग दो टीम में अलग अलग हो गए, मेरे साथ राहुल और गौरव रह गए, बाकी लोग अलग निकल गए,
मेले में सबसे पहले घर के बच्चों के लिए खिलौने खरीदे, फिर प्रसाद के साथ देने के लिए कुछ माला आदि, फिर घर मंदिर के लिए घंटी आदि कुछ सामान, शॉपिंग के बाद बाहर की तरफ चलते हुए खाने के स्टाल थे वहां छोले भटूरे का स्टाल देखते ही राहुल फैल गया को छोले भटूरे खाने है मैंने उसे बड़ी मुश्किल से समझाया कि यहां आज खाने लायक कुछ नही मिलेगा , गाँव का मेला है तो सब रेलमपेल होगा, फिर पड़ोस में ही चांट देखकर फैल गया, चांट देखकर मैंने भी सोचा कि चलो खा ही लेते है तो हम तीन लोग साथ थे तीन प्लेट टिक्की आर्डर की, दिखने में तो टिक्की ठीक थी लेकिन स्वाद गायब था, मैं टिक्की ख़त्म कर पाता इस से पहले ही राहुल वापस भाग कर छोले भटूरे की स्टाल में घुस गया बोला भाई मैं छोले भटूरे देख कर कंट्रोल नही कर सकता,
समझाने के बाद भी नही माना तो मैं साथ तो चला गया लेकिन खाने से मना कर दिया कि केवल दो प्लेट मंगाई जाए, छोले भटूरे जब सामने आए तो उसका सारा छोले भटूरे का प्रेम गायब हो गया,
अब मेरी हंसने की बारी थी मैं उसकी शक्ल और छोले भटूरे की प्लेट देख कर हंस रहा था, उन दोनों ने किसी तरह एक एक भटूरा खाया एक एक प्लेट में ही छोड़ कर गायब, मैंने भी उन्ही की प्लेट से टेस्ट किया था थोड़ा, हम छोले भटूरे के स्टाल पर पहुंचे थे तभी बाकी लोग अड्डे पर पहुंच चुके थे जहाँ मिलना था उनका फोन आना शुरू हो चुका था,
हम उन्हें गोली देते रहे कि यहां पहुंच गए वहां पहुंच गए दुकान नही मिल रही, फिर जब हम पहुंचे तो उनसे उनसे नजर बचा कर थोड़ा आगे निकल गए दुकान से फिर वापस मुद कर आए और बोले हम तो बाहर तक पहुंच गए थे दुकान नही दिखी,
फिर हमने वहां से जूते चप्पल और बाकी सामान लिया और वहां से प्रसाद खरीदा सबने घर के लिए, अब फिर बाहर निकलकर हमने घर के लिए ऑटो बुक किया, रास्ते मे एक ट्यूबवेल पर सब जी भरकर नहाए, जो जाते हुए ही निश्चित हो गया था कि वापसी में यहां नहाकर चलेंगे,
गाँव पहुंच कर, गाँव के मंदिर, और आपने देवता पर भी जल और प्रसाद चढ़ाया फिर हम सब अपने अपने घर निकल लिए और हमारी काँवड़ यात्रा का अंत हुआ,
विशेष
हमारी यात्रा में मुझे कहाँ क्या कमी लगी , आगे के लिए क्या सीख मिल इस बारे में थोड़ी बात कर लेते है,
१, यदि आपका प्लान पहले से ही फाइनल है कि जाना है तो शारीरिक रूप से भी थोड़ी तैयारी जरूर कर लें पैदल चलने की,
२, मच्छरों से सुरक्षा के लिए अपने साथ ओडोमास जैसा कुछ जरूर अपने साथ रखे,
३, धूप में चलने से पूरी त्वचा झुलस जाएगी तो बड़ी कैप और यदि हो सके तो सनक्रीम भी जरूर ले ले, क्योंकि आने के बाद मैंने देखा झुलस कर पूरी त्वचा काली पन्नी जैसी हो गयी थी जो जगह जगह से पपड़ी के रूप में उतर भी रही थी,
४, साथी हमेशा विश्वसनीय चुने जो हर हाल में साथ रहे और जिनके साथ आप हर हाल में रह सकते हो, एक दूसरे को छोड़कर ना भागे
५, सबसे पहला और जरूरी श्रद्धा और आस्था सबसे ज्यादा मुख्य है, इसके बिना यात्रा सफल होना मुश्किल है भले ही शारीरिक रूप से कितने भी मजबूत हो,
६, यात्रा का सबसे दुखद पहलू जिसके बारे में अभी तक कहीं कोई जिक्र नही किया, नशा !!!
लोग भगवान शिव का प्रसाद बोलकर यात्रा में बेतहासा नशा करते दिखे, नशा किसी भी रूप में ही नाश की निशानी है इससे बचकर रहे,
अगली यात्रा की उम्मीद में
जय भोले भंडारी,
पुरामहादेव
जिसे परशुरामेश्वर भी कहते हैं उत्तर प्रदेश के मेरठशहर के पास, बागपत जिले से ४.५ कि.मी दूर बालौनी कस्बे में एक छोटा से गाँव पुरा में हिन्दू भगवान शिव का एक प्राचीन मंदिर है जो शिवभक्तों का श्रध्दा केन्द्र है। इसे एक प्राचीन सिध्दपीठ भी माना गया है। केवल इस क्षेत्र के लिये ही नहीं प्रत्युत्त समस्त पश्चिमी उत्तर प्रदेश में इसकी मान्यता है। लाखों शिवभक्त श्रावण और फाल्गुन के माह में पैदल ही हरिद्वार से कांवड़ में गंगा का पवित्र जल लाकर परशुरामेश्वर महादेव का अभिषेक करते हैं।
जहाँ पर परशुरामेश्वर पुरामहादेव मंदिर है। काफी पहले यहाँ पर कजरी वन हुआ करता था। इसी वन में जमदग्नि ऋषि अपनी पत्नी रेणुका सहित अपने आश्रम में रहते थे। रेणुका प्रतिदिन कच्चा घड़ा बनाकर हिंडन नदी नदी से जल भर कर लाती थी। वह जल शिव को अर्पण किया करती थी। हिंडन नदी, जिसे पुराणों में पंचतीर्थी कहा गया है और हरनन्दी नदी के नाम से भी विख्यात है, पास से ही निकलती है। यह मंदिर मेरठ से ३६ कि.मी व बागपत से ३० कि.मी दूर स्थित है। प्राचीन समय मे एक बार राजा सहस्त्र बाहु अपनी सेना के साथ शिकार खेलते हैं ऋषि जमदग्नि के इस आश्रम में पहुंचे, यहां ऋषि की अनुपस्थिति में कामधेनु गाय की कृपा से राजा का पूर्ण आदर सत्कार किया। राजा उस अद्भुत गाय को बलपूर्वक वहाँ से ले जाना चाहता था। परन्तु वह ऐसा करने में सफल नहीं हो सका। अन्त में राजा गुस्से में रेणुका को ही बलपूर्वक अपने साथ अपने महल हस्तिनापुर ले गया, तथा कमरे में कैद कर दिया, वहां रानी ने मौका देखकर अपनी छोटी बहन की सहायता से रेणुका को मुक्त करा दिया, रेणुका ने वापस आकर जब ऋषि को सारा वृतांत बताया तो ऋषि ने एक रात्रि पर पुरूष के साथ महल में रहने के कारण रेणुका को आश्रम छोड़ने का आदेश दिया, रेणुका ने अपने पति से प्रार्थना की वह पवित्र है आश्रम छोड़ कर नही जाएगी, चाहे आप अपने हाथों से उसके प्राण हर ले,
ऋषि ने अपने पुत्रों को माता का सर धड़ से अलग करने का आदेश दिया, परन्तु तीन पुत्रो ने मना कर दिया, चौथे पुत्र परशुराम ने पिता की आज्ञा को अपना धर्म मानते हुए माता का सर काट दिया, उन्हें इसका घोर पश्चताप था इसलिए उन्होंने वहां शिवलिंग स्थापित कर उसकी पूजा करते है घोर तपस्या आरम्भ कर दी, उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर आशुतोष भगवान शिव ने उन्हें दर्शन दिए और वरदान मांगने को कहा, परशुराम ने अपनी माता को पुनर्जीवित करने की प्रार्थना की, भगवान शिव ने उनकी माता रेणुका को पुनर्जीवित कर दिया, आशीर्वाद स्वरूप एक परशु (फरसा) दिया तथा कहा युद्ध मे जब भी इसका प्रयोग करोगे तो विजयी होंगे,
परशुराम जी वही पास के वन में एक कुटिया बनाकर रहने लगे। थोड़े दिन बाद ही परशुराम जी ने अपने फरसे से सम्पूर्ण सेना सहित राजा सहस्त्रबाहु को मार दिया। वे तत्कालीन क्षत्रियों के दुष्कर्मों के कारण बहुत ही क्षुब्ध थे, अतः उन्होंने पृथ्वी पर क्षत्रियों को मृत्यु दण्ड दिया व इक्कीस बार पूरी पृथ्वी को क्षत्रिय विहीन कर दिया। जिस स्थान पर शिवलिंग की स्थापना की थी वहां एक मंदिर भी बनवा दिया। कालान्तर मंदिर खंडहरों में बदल गया।
काफी समय बाद एक दिन लण्डौरा की रानी इधर घूमने निकली तो उसका हाथी वहाँ आकर रूक गया। महावत की बड़ी कोशिश के बाद भी हाथी वहां से नहीं हिला तब रानी ने सैनिकों को वह स्थान खोदने का आदेश दिया। खुदाई में वहाँ एक शिवलिंग प्रकट हुआ जिस पर रानी ने एक मंदिर बनवा दिया यही शिवलिंग तथा इस पर बना मंदिर आज परशुरामेश्वर मंदिर के नाम से विख्यात है।
इसी पवित्र स्थल पर जगद्गुरू शंकराचार्य स्वामी कृष्ण बोध आश्रम जी महाराज ने भी तपस्या की, तथा उन्हीं की अनुकम्पा से पुरामहादेव महादेव समिति भी गठित की गई जो इस मंदिर का संचालन करती है।
काँवड़ यात्रा का प्रारंभ और इस से जुड़ी मान्यताएं
१, मान्यता है कि सबसे पहले भगवान परशुराम ने बागपत के पास स्थित पुरा महादेव मंदिर में कावड़ से गंगाजल लाकर जलाभिषेक किया था। जलाभिषेक करने के लिए भगवान परशुराम गढ़मुक्तेश्वर से गंगाजल लेकर आए थे।
२, कुछ अन्य मान्यताओं के अनुसार सबसे पहले प्रभु श्री राम ने शिव का जलाभिषेक किया। कथा मिलती है कि श्रीराम ने बिहार के सुल्तानगंज से कांवड़ में गंगाजल भरकर, बाबाधाम में शिवलिंग का जलाभिषेक किया था।
३, कुछ विद्वानों का मानना है कि त्रेतायुग में श्रवण कुमार हिमाचल के उना क्षेत्र से अपने माता-पिता को कांवड़ में बैठाकर हरिद्वार लाए और उन्हें गंगा स्नान कराया था। वापसी में वे अपने साथ गंगाजल भी ले गए। और इसे ही कावड़ यात्रा की शुरुआत माना जाता है।
४, पुराणों के अनुसार समुद्र मंथन से निकले विष को पी लेने के कारण भगवान शिव का कंठ नीला हो गया और वे नीलकंठ कहलाए। विष के प्रभाव को खत्म करने के लिए लंका के राजा रावण ने कांवड़ में जल भरकर बागपत स्थित पुरा महादेव में भगवान शिव का जलाभिषेक किया था। यहां से शुरू हुई कावड़ यात्रा की परंपरा। वहीं कुछ के अनुसार विष के प्रभावों को दूर करने के लिए देवताओं ने सावन में शिव पर मां गंगा का जल चढ़ाया था और तब कांवड़ यात्रा का प्रारंभ हुआ।
५, हिंडन के तट पर स्थित इस मंदिर की स्थापना के बारे में माना जाता है कि इसे भगवान परशुराम ने स्थापित किया था। यही वजह है कि कांवड़ियों के लिए महादेव के मंदिर का खास महत्व है।
इसी के साथ मेरे इस यात्रा वर्णन का भी अंत होता है, ये इस सीरीज की अंतिम कड़ी थी, टिप्पणी में अपनी प्रतिक्रिया जरूर दे, मेरे द्वारा उपलब्ध कराई गई जानकारी कैसी थी, जानकारियों के बारे में कोई मतभेद या अन्य मान्यताओं की जानकारी हो तो वो भी जरूर बताए,
शुभेच्छाओ के साथ,
अतुल शर्मा
( पगला पंडित )
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