कैप्टन मनोज पांडेय।
उत्तर प्रदेश में पैदा हुआ था। सीतापुर जिले में। गांव का नाम है रुधा। गोपीचंद पांडेय लखनऊ में रहने वाले एक छोटे व्यापारी को बेटा हुआ था। तारीख थी 25 जून 1975। घर का सबसे बड़ा लड़का। बड़ा हुआ स्कूल जाने लगा। रानी लक्ष्मीबाई सिनियर सेकेंडरी स्कूल पहुंचा। पढ़ा खेला-कूदा। यहां से पहुंच गया उत्तर प्रदेश सैनिक स्कूल, लखनऊ। यहां शायद मनोज पांडेय को अपना सपना दिख गया था।
पढ़ता-लिखता खूब था। खेल भी खेलता था। क्रिकेट नहीं। बॉक्सिंग करता था। बॉडी बिल्डिंग का भी खूब शौक था। स्कूल खत्म हुआ। एनडीए का एग्जाम दिया। सेलेक्ट हो गया। इंटरव्यू के लिए बुलावा आया। SSB इंटरव्यू के लिए। क्या होता है SSB पता है? गए हो कभी? नहीं गए हो तो कोई बात नहीं। जो गया है उनसे पूछ लेना। बता देगा। 5 दिन में तुम्हारे-हमारे जैसे लौंडों के सारे कल-पुर्जे ठीक हैं कि नहीं, सब पता कर लेते हैं। दिमाग से लेके शरीर तक। गया हूं दो बार इसीलिए बता रहा हूं। अगर शौक है फ़ौज में अफसर बनने का तो वो 5 दिन सेलेक्ट हो ना हो, खूब मजे करोगे। अगर शौक न हो तो कतई मत जाना। खैर ..
अब आगे का किस्सा…
मनोज SSB के लिए पहुंचा। आखरी दिन। इंटरव्यू पैनल बैठा था।
सवाल:आर्मी क्यों जॉइन करना चाहते हो? अपने पूरे होश में सामने बैठा लड़का,
जिसने अभी हाई स्कूल पास किया है।जवाब देता है,
मुझे परम वीर चक्र चाहिए! पूरे बोर्ड में थोड़ी देर की चुप्पी रहती है।
फिर यहां से शुरू हुआ।
मनोज पांडेय के ‘परमवीर चक्र कैप्टन मनोज पांडेय’ बनने का सफ़र।
एनडीए जॉइन किया। MIKE स्क्वाड्रन मिला। ट्रेनिंग पूरी की।
गोरखा राइफल्स जॉइन करना चाहता था, मिल गया।
3 मई 1999, कारगिल युद्ध का संकेत मिल गया था। मई के महीने में शुरू हुए कारगिल युद्ध में शामिल हज़ारों जवानों में एक था, कैप्टन मनोज पांडेय। गोरखा राईफल्स। ये वही रेजिमेंट थी, जिसके लिए हिटलर भी तरसता था। कहते हैं, कभी उसने कहा था, ‘अगर गोरखाओं की फ़ौज मुझे मिल जाए तो मैं पूरी दुनिया पर काबू पा सकता हूं।’ कैप्टन मनोज पांडेय को इस पूरे ऑपरेशन विजय के दौरान एक नहीं कई मिशन में लगाया गया। और मनोज पांडेय एक-एक कर सब पूरा करता गया। 3 जुलाई को मनोज पांडेय को खालुबर हिल से दुश्मनों को खदेड़ने का टास्क मिला। सबसे बड़ी दिक्कत ये थी कि इस पूरे ऑपरेशन को रात के अंधेरे में अंज़ाम देना था।
मनोज अपनी पूरी पलटन के साथ आगे बढ़े। लेकिन एक जगह स्थिति ऐसी आई जहां से पलटन को दो हिस्सों में बटना पड़ा। आधा हिस्सा दाईं ओर से बढ़ा और बाईं ओर से खुद कैप्टन पांडेय पूरी पलटन को लिए आगे बढ़े।
कैप्टन मनोज एक-एक कर दुश्मनों के सारे बंकर खाली करते जा रहे थे। पहला बंकर बर्बाद करते हुए, मनोज ने आमने-सामने की लड़ाई में दुश्मन के दो लोगों को मार गिराया। दूसरा बंकर बर्बाद करते हुए कप्तान ने दो और दुश्मनों को मार गिराया। लेकिन तभी तीसरे बंकर की ओर बढ़ते हुए, मनोज को कंधे और पैर में दो गोलियां लग गईं। लेकिन मनोज ने यहां भी हार नहीं मानी और अपनी पलटन को लिए आगे बढ़ता रहा। आखिरकार दुश्मन के चौथे और आखरी बंकर को भी ध्वस्त कर दिया।
लेकिन शायद इस कप्तान ने अपनी पूरी ज़िन्दगी जी ली थी। गोलियां लगने से जख्मी हुआ कैप्टन मनोज पांडेय, शहीद हो गया।
जाते-जाते इसके आखरी शब्द थे, ‘ना छोड़नु’, नेपाली में। जिसका मतलब होता है किसी को भी छोड़ना नहीं!
और 24 साल का उत्तर प्रदेश में पैदा हुआ देश का सिपाही शहीद हो गया। लेकिन जाते-जाते भी उसने अपनी ताकत दुनिया को दिखा दी थी।
जब कैप्टन मनोज पांडेय का पार्थिव शरीर लखनऊ पहुंचा था तब पूरा लखनऊ अपने इस कप्तान को देखने के लिए उमड़ पड़ा था। पूरा शहर लबालब सड़कों पर चल रहा था, सिर्फ उस मैदान तक पहुंचने के लिए जहां उनका शहीद कप्तान उनका इंतज़ार कर रहा था।
मरणोपरांत परमवीर चक्र कैप्टन मनोज पांडेय को हमारा सलाम!