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Monday, July 11, 2016

परमवीर चक्र कैप्टन मनोज पांडेय

कैप्टन मनोज पांडेय।
उत्तर प्रदेश में पैदा हुआ था। सीतापुर जिले में। गांव का नाम है रुधा। गोपीचंद पांडेय लखनऊ में रहने वाले एक छोटे व्यापारी को बेटा हुआ था। तारीख थी 25 जून 1975। घर का सबसे बड़ा लड़का। बड़ा हुआ स्कूल जाने लगा। रानी लक्ष्मीबाई सिनियर सेकेंडरी स्कूल पहुंचा। पढ़ा खेला-कूदा। यहां से पहुंच गया उत्तर प्रदेश सैनिक स्कूल, लखनऊ। यहां शायद मनोज पांडेय को अपना सपना दिख गया था।

पढ़ता-लिखता खूब था। खेल भी खेलता था। क्रिकेट नहीं। बॉक्सिंग करता था। बॉडी बिल्डिंग का भी खूब शौक था। स्कूल खत्म हुआ। एनडीए का एग्जाम दिया। सेलेक्ट हो गया। इंटरव्यू के लिए बुलावा आया। SSB इंटरव्यू के लिए। क्या होता है SSB पता है? गए हो कभी? नहीं गए हो तो कोई बात नहीं। जो गया है उनसे पूछ लेना। बता देगा। 5 दिन में तुम्हारे-हमारे जैसे लौंडों के सारे कल-पुर्जे ठीक हैं कि नहीं, सब पता कर लेते हैं। दिमाग से लेके शरीर तक। गया हूं दो बार इसीलिए बता रहा हूं। अगर शौक है फ़ौज में अफसर बनने का तो वो 5 दिन सेलेक्ट हो ना हो, खूब मजे करोगे। अगर शौक न हो तो कतई मत जाना। खैर ..

अब आगे का किस्सा…

मनोज SSB के लिए पहुंचा। आखरी दिन। इंटरव्यू पैनल बैठा था।
सवाल:आर्मी क्यों जॉइन करना चाहते हो? अपने पूरे होश में सामने बैठा लड़का,
जिसने अभी हाई स्कूल पास किया है।जवाब देता है,
मुझे परम वीर चक्र चाहिए! पूरे बोर्ड में थोड़ी देर की चुप्पी रहती है।
फिर यहां से शुरू हुआ।
मनोज पांडेय के ‘परमवीर चक्र कैप्टन मनोज पांडेय’ बनने का सफ़र।
एनडीए जॉइन किया। MIKE स्क्वाड्रन मिला। ट्रेनिंग पूरी की।
गोरखा राइफल्स जॉइन करना चाहता था, मिल गया।

3 मई 1999, कारगिल युद्ध का संकेत मिल गया था। मई के महीने में शुरू हुए कारगिल युद्ध में शामिल हज़ारों जवानों में एक था, कैप्टन मनोज पांडेय। गोरखा राईफल्स। ये वही रेजिमेंट थी, जिसके लिए हिटलर भी तरसता था। कहते हैं, कभी उसने कहा था, ‘अगर गोरखाओं की फ़ौज मुझे मिल जाए तो मैं पूरी दुनिया पर काबू पा सकता हूं।’ कैप्टन मनोज पांडेय को इस पूरे ऑपरेशन विजय के दौरान एक नहीं कई मिशन में लगाया गया। और मनोज पांडेय एक-एक कर सब पूरा करता गया। 3 जुलाई को मनोज पांडेय को खालुबर हिल से दुश्मनों को खदेड़ने का टास्क मिला। सबसे बड़ी दिक्कत ये थी कि इस पूरे ऑपरेशन को रात के अंधेरे में अंज़ाम देना था।

मनोज अपनी पूरी पलटन के साथ आगे बढ़े। लेकिन एक जगह स्थिति ऐसी आई जहां से पलटन को दो हिस्सों में बटना पड़ा। आधा हिस्सा दाईं ओर से बढ़ा और बाईं ओर से खुद कैप्टन पांडेय पूरी पलटन को लिए आगे बढ़े।

कैप्टन मनोज एक-एक कर दुश्मनों के सारे बंकर खाली करते जा रहे थे। पहला बंकर बर्बाद करते हुए, मनोज ने आमने-सामने की लड़ाई में दुश्मन के दो लोगों को मार गिराया। दूसरा बंकर बर्बाद करते हुए कप्तान ने दो और दुश्मनों को मार गिराया। लेकिन तभी तीसरे बंकर की ओर बढ़ते हुए, मनोज को कंधे और पैर में दो गोलियां लग गईं। लेकिन मनोज ने यहां भी हार नहीं मानी और अपनी पलटन को लिए आगे बढ़ता रहा। आखिरकार दुश्मन के चौथे और आखरी बंकर को भी ध्वस्त कर दिया।

लेकिन शायद इस कप्तान ने अपनी पूरी ज़िन्दगी जी ली थी। गोलियां लगने से जख्मी हुआ कैप्टन मनोज पांडेय, शहीद हो गया।

जाते-जाते इसके आखरी शब्द थे, ‘ना छोड़नु’, नेपाली में। जिसका मतलब होता है किसी को भी छोड़ना नहीं!
और 24 साल का उत्तर प्रदेश में पैदा हुआ देश का सिपाही शहीद हो गया। लेकिन जाते-जाते भी उसने अपनी ताकत दुनिया को दिखा दी थी।

जब कैप्टन मनोज पांडेय का पार्थिव शरीर लखनऊ पहुंचा था तब पूरा लखनऊ अपने इस कप्तान को देखने के लिए उमड़ पड़ा था। पूरा शहर लबालब सड़कों पर चल रहा था, सिर्फ उस मैदान तक पहुंचने के लिए जहां उनका शहीद कप्तान उनका इंतज़ार कर रहा था।

मरणोपरांत परमवीर चक्र कैप्टन मनोज पांडेय को हमारा सलाम!

Friday, July 8, 2016

तख्ती

आज ही की बात है, अभी दोपहर को ऑफिस से आते है आदतन फेसबुक खोल कर देखा, मेरे पसंद के एक पेज #दूरदर्शन की पोस्ट सबसे ऊपर चमक रही थी, पोस्ट देखते ही लालसा बढ़ी चलो पढ़ लेता है जरूर अच्छी होगी,
हमेशा बचपन को वापस दिलाने वाली पोस्ट होती है आज भी वही बचपन का राग अलापा था, जिंदगी की इन अनेको भागदौड़ परेशानियों के बीच फिर से एक मुस्कराहट उड़ेल गया चेहरे पर,
मुद्दा वो ही था मेरी दुखती रग #पढाई से जुड़ा हुआ, आज तख्ती की फोटो डाली है पता नही कहाँ कहाँ से निकाल कर लाता है... अब यादे ताजा हुई तो मैंने भी अपनी लेखनी संभाल ली बचपन में मेरे पास जो तख्ती थी उसको लेकर मेरे मन में एक टीस हुआ करती थी उन दिनों, मेरी तख्ती पुरानी सी, आधा हत्था टूटी हुई, मोटी सी हुआ करती थी जबकी सभी दोस्तों के पास एकदम नई नवेली सुडौल, तो उनकी तख्तियों से मुझने अंदर ही अंदर हीन भावना और जलन होती थी जो आज से पहले मैंने किसी से ही कही, घर पर नई तख्ती के लिए भी नही बोल सकता था एक तो तख्ती अभी तक सही सलामत थी और दूसरी घर की स्थिति जानता था की जब तक टूटेगी नही मांगने से भी दूसरी नही मिलेगी तो कभी प्रयास ही नही किया, आज अनायास ही उस बेडौल से खिलौने की याद आ गयी
दरअसल वो हमारी खानदानी तख्ती थी 😜😜 मेरे चाचाओं से लेकर छोटे भाई तक सबने उसी से अपनी प्रारंभिक शिक्षा पूरी की, आज सोचता हूँ तो उसकी सारी कहानी समझ आती है पुरानी थी इसलिए मोटी और मजबूत थी, हत्था शायद मुझे मिलने से पहले ही आधा टूट चूका था शुरू में मुझे भी बड़ा चाव था तख्ती लिखने का स्कूल से आते ही सबसे पहले तवा उठा कर तख्ती साफ़ करने के बाद तख्ती पर तवे की कालिख पोतना, सुखाने के बाद उसे झाड़ना फिर घास के पत्तो से चिकना करना और फिर किसी दवाई की कांच की बोतल से उसे घोटना, उसे बाद सीधी लाइन खींचना लिखने के लिए, लेकिन इसके बाद सारी मेहनत बरबाद करने का वक्त आता था, हाहाहा अरे मतलब तख्ती लिखने का .... क्योंकि मेरी लिखाई मेरी सूरत से भी बुरी थी ... ओ हाँ थी नही आज भी है.. कभी नही सुधार पाया... कई बार कोशिस की लेकिन हर बार मंजिल से पहले ही थक कर काम लिखाई सुधारने का प्रयास बीच में ही अटक गया

आरक्षण

चलो मौसम अच्छा है बारिश हुई है मन थोडा अशांत है लेकिन चलो शायद लेखनी उसे शांत कर पाए इसीलिए हमने आज फिर अपने हथियार उठा लिए,
आज का मुद्दा है आरक्षण... सबसे विवादस्पद लेकिन सबसे ज्यादा चर्चा में भी है आमजन में
आरक्षण को समझने के लिए जरुरी है सबसे पहले ये जानना की आरक्षण है क्या : ...अब कोई कहेगा की आरक्षण भीख है, कोई कहेगा की आरक्षण हक़ है, कोई इसे जरुरत का नाम देगा, कोई नेताओ का बोया हुआ बीज बताएगा... सबका अपना अपना मत है, होना भी चाहिए यही आपके होने की पहचान है.... अब बात आती है मेरी... मेरे हिसाब से आरक्षण क्या है... तो भैया सीधी सी बात है.. परिभाषा, संविधान, कानून ना इन सब की मुझे जानकारी है ना अभी इनके बारे में सोच रहा है
मेरे हिसाब के तो आरक्षण कुछ भले नेताओ द्वारा बोया गया ऐसा बीज है जिसका उद्देश्य समाज के दलित पिछड़े तबके को सबके साथ लाकर खड़ा करना था लेकिन आरक्षण को जातियो से जोड़ना ही इसके मूल उद्देश्य से भटका गया और अब कुछ जातिविशेष के लोग इसे अपना हक़ मान बैठे है, साथ ही साथ आरक्षण का गलत प्रारूप योग्यता के साथ खिलवाड़ है इसमें भी कोई शक नही है इसलिए आरक्षण के मौजूदा प्रारूप को देश के लिए जहर कहना गलत नही होगा,
अब प्रश्न आता है की क्या आरक्षण अपने वास्तविक मकसद में कामयाब हुआ,
ये भी बड़ा ही जटिल प्रश्न है आरक्षण की कामयाबी को नाकारा भी नही जा सकता समाज में दलित समाज की हिस्सेदारी बढ़ना साफ़ दर्शाता है की काम तो हुआ है लेकिन इस काम की कीमत क्या है ये जानना भी बहुत जरुरी है किसी को सबल बनाने के लिए दूसरे को दुर्बल करने का प्रयास ही आज का आरक्षण है