बात आज सुबह की है ट्रेन चलाते चलाते मन मे पता नही कहाँ से राष्ट्रपति चुनाव आ गए, इस पर होने वाली दलित राजनीति से होते हुए विचार मेरे खुद के सामाजिक ताने बाने तक पहुंच गए, मतलब समाज मे वास्तव में इतना भेदभाव या छुआ छूत जितनी दिखाई या बताई जाती है,
जैसा कि मैं अब तक ये पढ़ता सुनता आया हूँ कि ये सब गाँवो में ज्यादा है (हो सकता है आपने कुछ और सुना पढ़ा हो) फिर मैंने सोचा क्या वास्तव में ही गाँवो में इतनी छुआ छूट है, वैसे तो ज्यादातर लोग जानते ही है नही तो नाम में लगे उपनाम से समझ गए होंगे, मैं हिन्दू ब्राह्मण परिवार में जन्मा हूँ और इसका मुझे कभी कोई अफसोस या अभिमान नही रहा, क्योंकि इसमें अभिमान या अफसोस करने जैसा कुछ नही है आप कहाँ जन्म लेंगे ये आपके नियंत्रण में नही है लेकिन आपके कर्म आपके नियंत्रण में है, आपके कर्म ही आपका तथाकथित भाग्य निर्धारित करते है वो ही बताएंगे कि आप भेदभाव का शिकार बनोगे या खुद भेदभाव करोगे,
जो लोग समाज मे समानता चाहते है उनके लिए मेरे सिर्फ एक वाक्य है जब तक सृष्टि है तब तक असमानता रहेगी, हमारी विशिष्टता ही हमारी पहचान है और ये जरूरी है, इसे मैं तुम अम्बेडकर मायावती मोदी या कोई गाँधी समाप्त नही कर सकता,
हाँ तो मैं बात कर रहा था सामाजिक तानेबाने की, ध्यान रहे जरूरी नही की जैसा मेरा है आपका भी ऐसा ही हो, मैं ये नही कहूँगा की मैंने कभी भेदभाव नही किया, एपने घर से शुरुवात करता हूँ तो गाँव मे जहाँ मेरा घर है वहां बनिये, ब्राह्मण, त्यागी, तेली, गडरिये, माली, जुलाहे, धीमर, लुहार और भाट है कहने का मतलब है बस्ती मिली जुली है, सभी का सभी के घर आना जाना खाना पीना भी है, बाकी हरिजन और मुस्लिम बस्ती मुख्यतया गाँव के किनारों पर है, लेकिन गाँव मे बीच मे भी उनके घर है, हाँ घर मे आना जाना खाना पीना उनका भी है, ध्यान रहे मैं उसी ब्राह्मण परिवार से हूँ जिसे किताबों और टीवी में अत्यंत ही हरामी और भेदभाव करने वाला दिखाया जाता रहा है, मतलब इस स्टेज तक भेदभाव बिल्कुल भी नही था,
थोड़ा बड़ा हुआ गाँव के ही एक निजी स्कूल में पढ़ाई शुरू हुई स्कूल के प्रधानाध्यापक और मालिक भी एक ब्राह्मण (श्री कालू राम शर्मा जी) थे, वहां स्कूल के पीछे ही हरिजन बस्ती थी, और स्कूल में सभी बच्चे एक साथ पढ़ते थे, कभी किसी को ये कहते नही सुना देखा कि तुम बैंच पर बैठो और तुम जमीन पर, या क्लास से बाहर खड़े होकर पढ़ो, ना ही किसी अध्यापक को पढ़ाते या पिटाई करते समय भेदभाव करते देखा सुना, और ये बात मैं अकेले नही कह रहा जो लोग मेरे साथ कभी भी रहे है वो सभी इस बात की पुष्टि कर सकते हैं, सभी का साथ मे उठना बैठा बैठना खाना पीना था, स्कूल के बाहर एक ही नल से पानी पिया करते थे सब वो भी हाथ लगा कर ओख बना कर, उस समय बोतल ले जाने का चलन नही था, मतलब यहाँ तक भी नही दिखा,
थोड़ा बड़ा हुआ तो कालेज पहुंचा वहाँ जाकर देखा कुछ लोग ज्यादा फीस देते थे कुछ कम, यहाँ आकर थोड़ा थोड़ा दिखा लेकिन अभी भी हम सब साथ ही रहते थे, साथ मे खड़े की लात खेलते थे, साथ मे ही कॉलेज से पैदल या साईकल पर आते थे, लेकिन जो भेदभाव पढ़ता आया था था वे यहाँ आकर भी नही दिखे,
ये सब तो घर गाँव से जुड़ा था तो ज्यादा बदलाव सम्भव भी नही था, अब कुछ दिन सौभाग्य से हॉस्टल में रहा अपने हाईस्कूल के दौरान, लेकिन मजे की बात ये है यहां हम सब अपने घरों से दूर थे, लेकिन यहाँ भी होस्टल में हम सब एक साथ बैठ कर एक ही मेस में एक एक ही रसोई का बना हुआ खाना एक साथ बैठ कर एक साथ रखे रहने वाले बर्तनों में खाते थे, एक जैसे ही कमरों में रहते थे मतलब यहाँ भी सामाजिक भेदभाव ना के बराबर ही था, ये ही हालात पॉलीटेकनिक की पढ़ाई के दौरान रहे, मलतब मेरा कहीं भी तथाकथिक भेदभाव से सामना नही हुआ,
साल २००९ में मेट्रो में नौकरी के चलते दिल्ली आना हुआ, मतलब अब मैं भारत की शक्ति के केंद्र दिल्ली में था, जोकि काफी समृद्ध समझा जाता रहा है, यहाँ आकर भी मेरा पहला रूममेट एक मुश्लिम था, उसके बाद एक हरीजन (लिखते हुए शर्मिंदा हूँ कभी सोचा नही था आज से पहले इस बारे), खैर इनके साथ रहते हुए भी कभी भेदभाव से आमना सामना नही हुआ शायद उन्हें भी नही हुआ होगा लगभग 5 साल साथ रहे है और मेरे सबसे नजदीकी भी मेरा रूम मेट ही रहा है,
खैर अब बताता हूँ भेदभाव कहाँ कहाँ देखा मैने, दिल्ली आकर जब भी घर से बाहर निकला हर जगह भेदभाव देखा, रेस्टोरेन्ट खाना खाने गये तो गार्ड को मुस्कुराकर दरवाजा खोलता गार्ड देखा वही गार्ड बाहर खड़े मैले कपड़े पहले बच्चे को भगाते देता तो पता चला भेदभाव क्या होता है, खाना खाकर हजारों का बिल सर्विस चार्ज अलग से और टैक्स सहित चुकाने के बाद जब टिप अलग से दिया, बाहर आकर 10 रूपये के 4 गोलगप्पे खाने के बाद एक पपड़ी मुफ्त में खाना अपना अधिकार समझा वो था भेदभाव, आपस घर आते हुए जब पड़ोस में खड़े पसीने से लथपथ आदमी को देख कर मुँह चिढ़ाया और सामने खड़े डिओ से महकी लड़की को देख कर मुस्कुराया ये था भेदभाव, जब फ्री धनिया मिर्ची के लिए सब्जी वाले से लड़ने को तैयार रहने वाले लोगो को बिग् बाजार में समान के थैले के पैसे अलग से देते देखा तो भेदभाव पता चला, मेट्रो से उतर कर सीढी पर गुलाब बेच रहे गंदे कपड़े पहने बच्चों को छूने से बचने के लिए जब पीछे हटे और साफ कपड़े पहनी एक औरत की गोद मे कुत्ते को देख कर अनायास ही निकले क्यूट को सुनकर पता चला क्या है भेदभाव,.....
अतुल शर्मा गुड्डू
रासना वाले