...तो उन्हें 'गोरखालैंड' दे क्यों नहीं देते?
दार्जिलिंग जल रहा है, देश के अलग-अलग हिस्सों के अलावा विदेशों से प्राकृतिक सौन्दर्य का आनंद लेने पहुंचे पर्यटक भूख से मर रहे हैं, आंदोलन करने वाले लोगों का नेतृत्व कर रहे नेताओं के घर छापे पड़ रहे हैं, इन सबकी वजह क्या है? क्या लोगों को हो रही परेशानी के लिए एक आंदोलन जिम्मेदार है? क्या आंदोलन कर रहे लोगों की मांग नाजायज है? आइए, इतिहास से वर्तमान तक के हालात का विश्लेषण करते हुए दार्जिलिंग में चल रहे आंदोलन को समझने की कोशिश करते हैं।
देश में कई बार भाषाई आधार पर राज्यों का विभाजन हुआ है। 1960 से इसकी शुरुआत हुई, जहां मराठी बोलने वालों के लिए महाराष्ट्र और गुजराती बोलने वालों के लिए गुजरात बना। इसके बाद झारखंड, छत्तीसगढ़, तेलंगाना जैसे राज्यों का गठन हुआ। वहीं दार्जिलिंग को सिक्किम में विलय करने की मांग वर्षों पुरानी है। इतिहास का अध्ययन करने पर पता लगता है कि दार्जिलिंग पर्वतीय क्षेत्र सिक्किम का ही हिस्सा रहा है। 1841 साल तक दार्जिलिंग सिक्किम को लगान देता था। बाद में अंग्रेजों ने दार्जिलिंग को सिक्किम से अलग कर दिया। तभी से दार्जिलिंग पश्चिम बंगाल का हिस्सा हो गया। भारत में राज्यों का गठन क्षेत्र की संस्कृति (खासकर भाषाई संस्कृति) के आधार पर होता आया है लेकिन दार्जिलिंग क्षेत्र, जो कि एक पहाड़ी क्षेत्र है, उसे पश्चिम बंगाल के साथ मिलाकर एक ओर जहां गोरखाई पहाड़ी संस्कृति को खत्म किया जा रहा है, वहीं एक दूसरी भाषा आधारित संस्कृति को जबरदस्ती थोपने की भी कोशिश की जा रही है। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के द्वारा 10वीं तक की शिक्षा में बांग्ला को अनिवार्य कर दिया जाना, इसका सबसे बड़ा उदाहरण है।
1865 में जब अंग्रेजों ने दार्जिलिंग में चाय का बगान शुरू किया तो बड़ी संख्या में मजदूर यहां काम करने आए। उस समय किसी तरह की अंतरराष्ट्रीय सीमा रेखा नहीं थी, लिहाजा ये लोग खुद को गोरखा किंग के अधीन मानते थे। इस इलाके को वे अपनी जमीन मानते थे। लेकिन आजादी के बाद भारत ने नेपाल के साथ शांति और दोस्ती के लिए 1950 का समझौता किया। सीमा विभाजन के बाद यह हिस्सा भारत में आ गया। उसके बाद से ये लोग लगातार एक अलग राज्य बनाने की मांग करते आ रहे हैं। बंगाली और गोरखा मूल के लोग सांस्कृतिक और ऐतिहासिक तौर पर एक दूसरे से अलग हैं, जिस वजह से इस आंदोलन को ज्यादा बल मिला।
गोरखालैंड की मांग की शुरुआत सबसे पहले गोरखा नैशनल लिबरेशन फ्रंट के सुभाष घिसिंग ने की थी। पहली बार 5 अप्रैल 1980 को घिसिंग ने ही ‘गोरखालैंड’ नाम दिया था। इसके बाद पश्चिम बंगाल की राज्य सरकार दार्जिलिंग गोरखा हिल काउंसिल (डीजीएचसी) बनाने पर राजी हुई। घिसिंग की लीडरशिप में अगले 20 साल तक वहां शांति बनी रही। लेकिन बिमल गुरुंग के उभरने के बाद हालात बदतर हो गए। गोरखा नैशनल लिबरेशन फ्रंट से अलग होकर विमल गुरुंग ने गोरखा जनमुक्ति मोर्चा की नींव रखी और गोरखालैंड की मांग फिर तेज हो गई। जिस हिस्से को लेकर गोरखालैंड बनाने की मांग की जा रही है उसका कुल एरिया 6246 किलोमीटर का है। इसमें बनारहाट, भक्तिनगर, बिरपारा, चाल्सा, दार्जिलिंग, जयगांव, कालचीनी, कलिम्पोंग, कुमारग्राम, कार्सेंग, मदारीहाट, मालबाजार, मिरिक और नागराकाटा शामिल हैं।
जिस क्षेत्र को गोरखालैंड बनाने की मांग की जा रही है, उसकी संस्कृति एक जैसी है। वहां के लोग गोरखा-नेपाली भाषा बोलते हैं। आंदोलनकारी चाहते हैं कि केन्द्र सरकार गोरखालैंड के नाम से एक अलग राज्य बनाकर उन्हें उनकी संस्कृति को सुरक्षित रखने का मौका दे, लेकिन राजनीति के साथ-साथ ‘गोरखालैंड’ के नेपाल के साथ मिल जाने का डर उन्हें अलग राज्य नहीं दे पा रहा है। इसके साथ-साथ एक सवाल यह भी है कि जहां के लोग भारतीय सीमा पर अपने शौर्य के लिए किसी परिचय के मोहताज नहीं, उस क्षेत्र के लोगों पर अपने देश का साथ छोड़ देने को लेकर शंका करना क्या उचित है? क्या उन्हें यह अधिकार नहीं है कि वे अपनी संस्कृति का संरक्षण कर सकें? क्या ममता बनर्जी द्वारा दसवीं तक की पढ़ाई में बांग्ला को अनिवार्य करना ‘भाषाई साम्राज्यवाद’ नहीं है? नई भाषा सीखना कहीं से भी गलत नहीं है लेकिन किसी भाषा को जबरदस्ती थोपना पूरी तरह से गलत है। जो इन इलाकों के मामलों को देखने वाले गोरखालैंड क्षेत्रीय प्रशासन (जीटीए) में गोरखा जनमुक्ति मोर्चा (जीजेएम) का प्रभाव इस बात को साबित करता है कि वहां के निवासी, वहां की जनता जीजेएम की मांग का समर्थन करती है। क्या आम जनता की इच्छा की अनदेखी करना ठीक है?
हो सकता है आप कहें कि ऐसा ही एक आंदोलन तो जम्मू-कश्मीर में भी चल रहा है, तो उसका समर्थन क्यों नहीं किया जा सकता। लेकिन घाटी के अलगाववादी आंदोलन की तुलना गोरखालैंड के आंदोलन से नहीं की जा सकती क्योंकि घाटी में आंदोलन करने वाले अलगाववादी पाकिस्तान का झंडा लहराते हैं, पाकिस्तान की जीत पर उसे बधाई देते हैं लेकिन जरा इस तस्वीर को देखिए, गोरखालैंड की मांग कर रहे आंदोलनकारी भारत के राष्ट्रीय ध्वज को लेकर सड़कों पर निकले हैं। वे बस इतना ही चाहते हैं कि केन्द्र सरकार के थोड़े से सहयोग से उनकी संस्कृति बच जाए, उनका मूल अस्तित्व बच जाए।
जीटीए द्वारा बुलाए गए बंद के दौरान हो रही हिंसा को कड़ाई से कुचलना चाहिए, दोषियों को सजा मिलनी चाहिए लेकिन साहब, यह कहां का न्याय है कि कोई अपनी संस्कृति को बचाने के लिए एक अलग प्रदेश की मांग करते हुए बंद बुलाए, आम जनता उसका साथ दे तो उनपर प्रदेश सरकार गोलियां चलवाती है लेकिन अगर कश्मीर में कोई पड़ोसी मुल्क का झंडा लेकर हमारी सेना के जवानों पर पत्थर बरसाए, देश तोड़ने की बात करे तो उनपर गोलियां चलाने की मांग करने वालों को ‘मानवता का हत्यारा’ करार दिया जाता है। इसकी वजह क्या है?
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