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Sunday, December 18, 2016

हिंदुत्व और हम ...

मैं बचपन से कट्टर हिन्दू नहीं था और मेरे माता पिता ने मुझे कट्टरवाद तो क्या,कभी हिन्दुवाद भी नहीं सिखाया ,
मुझे बचपन से यह रटाया गया कि
"हिन्दू-मुस्लिम" भाई भाई,
मुझे बचपन से ही क्लास 10 तक सेकुलरिज्म का पूरा डोज दिया जाता रहा है,

याद है मुझे अभी भी कि 10 वीं कक्षा के History बुक में मुझे यह रटाया जाता कि -"
अकबर महान था, हुमायूं महान था, औरंगजेब वीर था" इत्यादि

मेरी अंतरात्मा ने कभी मुझे दिल से सेक्युलरिज़्म की दलदल में  नहीं जाने दिया ,

जब मैंने दुनिया को जानना शुरू किया समझना शुरू किया

अभी मैंने देखा कि बहुत से सेकुलर पत्रकार ब्लॉग लिखकर जी न्यूज़ की निंदा कर रहे हैं ...लेकिन निंदा क्यों कर रहे हैं क्योंकि जी न्यूज बंगाल में मुसलमानों द्वारा हिंदुओं पर किये जा रहे अत्याचारों को दिखा रहा है इसलिए उन्हें तकलीफ और पीडा हो रही है ।

2002 के गुजरात दंगों के दौरान (और 2014 चुनाव तक भी ) हर एक मीडिया हर एक अखबार दंगों को खूब बढ़ा-चढ़ाकर दिखाता था रवीश कुमार वाले एनडीटीवी ने यह दिखाया था कि हिंदुओं की भीड़ में एक मुस्लिम गर्भवती महिला का तलवार से पेट चीरकर और उसका बच्चा निकालकर आग में फेंक दिया जांच में रिपोर्ट एकदम झूठी पाई गई तब किसी भी कांग्रेसी नेता ने या किसी भी सेकुलर सूअर पत्रकार ने यह नहीं कहा था कि NDTV और कोबरा पोस्ट तहलका जैसे पोर्टल सांप्रदायिक सौहार्द को खराब कर रहे हैं ।

लेकिन जब मुसलमानों द्वारा हिंदुओं पर अत्याचार की खबर दिखाई जाती है तब ही ये सेकुलर चिल्लाने लगते हैं देश का सांप्रदायिक माहौल खराब किया जा रहा है ।यानी मीडिया के कुछ वर्गों, कांग्रेस और आम आदमी पार्टी की नजर में हिंदुस्तान में मुसलमानों द्वारा दंगा करना दंगा फैलाना मंदिरों पर और हिंदुओं की संपत्ति पर हमला करना जायज है, पिछले कुछ दिनों में जिस तरह बंगाल में हालात बाद से बदतर हुए है ये जानता हर कोई है दबी जबान में कहता भी हर कोई है लेकिन सेक्युलरिज़्म का कीड़ा इस पीड़ा को कभी खुलकर बहार नही आने देता,

इसका कारण भी लगभग है कोई जानता है भले ही साबके सामने स्वीकार करने या कहने में झिझक होती हो, लेकिन चलो फिर भी मैं आज फिर बता देता हूँ ये साम्प्रदायिकता कोई नही चीज नही है लेकिन धरती के किसी भी कोने में चले जाओ, जहाँ भी साम्प्रदायिक दंगे फसाद हो उनमे एक दोनों पक्षो पर गौर करोगे तो पाओगे की 99% मामलो में एक पक्ष हमेशा मुसलमान होगा, फिर दूसरा चाहे कोई भी हो.... दूसरा पक्ष हिन्दू, सिख्स, ईसाई, बौद्ध, जैन, यहूदी कोई भी हो सकता है....

दुनिया भर के मुसलमानों को दरकिनार कर यदि हम ये सोच भी बनाने के प्रयास करे की भारत का मुसलमान ऐसा नही है, भारतीय मुसलमान देशप्रेमी और भाईचारे से रहने वाला है तो भी मन ये मानने कोई तैयार ही नही होता, क्योंकि भारत का इतिहास भूगोल वर्तमान सबकुछ ये ही कहता है कि मुसलमान सिर्फ मुसलमान है ना वो भारतीय है ना ब्रिटिश न अफ़्रीकी .....
इसलिए मेरे मन में एक सवाल आया की यदि मुसलमान सच मे भाईचारे के साथ रहते हैं तो फिर पाकिस्तान और बांग्लादेश की जरुरत ही क्यों पड़ी? और अब जम्मू कश्मीर,  केरल, बंगाल, उत्तरप्रदेश किस राह पर जा रहे है और उसकी वजह क्या है ये प्रश्न तब तक अनुत्तरित रहेगा जब तक हमें झूठा सेकुलरिज्म पढ़ाया जाता रहेगा....

Monday, September 19, 2016

उरी और पठानकोट विश्लेषण : भारत और पाकिस्तान

यदि सच पढ़ने सुनने की क्षमता हो तभी पढ़े,

हाल ही में उरी में आतंकी/पाकिस्तानी हमला हुआ, हमारी सेना के 18 जवान शहीद हो गए करीब 30 अस्पताल में घायल पड़े है, हम जैसो की देशभक्ति, गुस्सा और वीरता संभाले नही संभल रही, सबसे पहले तो शहीदों को श्रद्धांजलि देना चाहूंगा साथ ही इस हमले पर कुछ बात भी करना चाहूंगा हो सकता है बहुत से लोगो को हजम ना हो,

हमला कैसे हुआ : विभिन्न समाचार माध्यमो से प्राप्त जानकारी के हिसाब से हमलावर पीछे की तरफ टूटी हुई दीवार से सुबह के समय  अंदर दाखिल हुए, घूमे मुआयना किया तब हमला किया,

गलती किसकी : मुझे अपनी सेनाओं की क्षमता पर कोई शक नही है लेकिन कुछ सवाल जरूर है शायद आपके मन में भी आए हो, या हो सकता है सेना के सम्मान के कारण आप इस बारे में सोच ना पाए हो,  मारे गए चार हमलावरों में से तीन पाकिस्तानी है एयर एक भारतीय कश्मीरी, तीन घुसपैठिये पाकिस्तान से आसानी से भारत की सीमा में आते है यहाँ अपने दोस्त से मिलते है लेकिन हमारी सेना/ पुलिस/ लोकल इंटेलिजेंस सब फेल, कोई भी इन्हें पकड़ नही पाता, अब ये सेना कैम्प का मुआयना करके आते है लेकिन कैम्प की सुरक्षा में मुस्तैद जवानों को कोई खबर नही, उन्होंने "टूटी हुई दीवार" का पता लगाया हुआ और हमले की तैयारी की, यहीं एक और सवाल उठता है क्या हमारे जवानों को अपने ही कैंप की टूटी हुई दीवार नही दिखाई दी कभी, यदि दिकही दी तो क्या ये बात अधिकारियो तक पहुंची, यदि पहुंची तो अधिकारियो ने क्या दीवार बनवाने का प्रयास किया, यदि किया तो दिवार बन क्यों नही पाई, चलो कोई बात नही हो सकता है मंत्रालय ने दिवार बनाने के लिए पैसा ना दिया हो या कोई अड़चन लगा दी हो, लेकिन क्या तब तक कोई तारबंदी, अस्थाई बंकर वहां नही बनाया जा सकता था, यदि बना था तो उस पर तैनात जवान कहाँ था हमले के वक्त, तो सीधी साफ़ बात तो ये है कि हमला तो हमारी भगवान् समान पूजनीय सेना की अपनी कमियों से हुआ है लेकिन अब चुप बैठना कायरता ही है, क्या हमारी सेना/अर्धसैनिक बल अपने कैंप की भी रक्षा नही कर सकते, चलो आत्मघाती हमला था, हमारी सेना ने 17 सैनिकों की कीमत पर 4 सुवरो को मार लिया, और हाँ केवल उरी का ही नही पठानकोट में भी ये ही हुआ था लेकिन अब क्या....

सरकार ने क्या किया : हमारे मंत्री महोदय मौके पर घूम कर आए, हर छोटे बड़े नेता मंत्री ने हमले की निंदा का अपना काम पूरा किया, बड़े मंत्री साहब ने मीटिंग बुलाई चाय पी समोसे खाए, एक और रटा रटाया बयान आया हमले में पडोसी पाकिस्तान का हाथ है, दोषियों को बख्शा नही जाएगा, जनता का गुस्सा शांत होते नही दिखा एक और मीटिंग बुलाई फिर चाय समोसे इस बार मिठाई भी होगी, अब सबूत भी मिलने का दावा किया अब तो लग रहा है अब तो सबूत मिल ही गये है मीटिंग के बाद तुरंत पाकिस्तान बर्बाद हो जाएगा, सेना की कार्यवाही शुरू हो जाएगी, लेकिन होगा क्या सबूत सौंपे जाएंगे पाकिस्तानी उनका आचार डालेंगे बिरयानी में मिला कर खा जाएंगे, सबूत कम पड गये अगली बार ज्यादा भेजना का लव लैटर आएगा, सरकार कुछ नही कर रही चलो हम ही कुछ करेंगे, आओ मिलकर जोर लगा कर लिखते है पकिस्तान मुर्दाबाद, और हो जाएगा पाकिस्तान मुर्दाबाद, एक मोमबत्ती वाली फोटो डाउनलोड करके लगाते है,

तो क्या कर सकते है : तो भैया हम ये कर सकते है पर दबाव बनाओ की हमे नही चाइये 15 लाख, हमे नही चाहिए बुलेट ट्रेन, सबसे पहले हमें शांति चाहिए, शांति कैसे आएगी रोज रोज के इस नाटक से मुक्ति मिलेगी तब पड़ेगी शांति, तो भैया यदि शांति युद्ध में पाकिस्तान को बरबाद करके ही मिल सकती है तो युद्ध हो जाने दो सामने से, कम से हम हमारे जवान सोते हुए तो नही मारे जाएंगे, जब मरना ही तो तो सोते हुए मरने से अच्छा है युद्ध के मैदान में लड़ते हुए शहीद हो, कम से कम दुनिया इज्जत तो रहेगी, सर उठा कर कह तो सकेंगे की युद्ध के मैदान में लड़ते हुए शहीद हुए है, "भगवान् श्रीकृष्ण ने भी गीता में कहा है यदि शाँति का मार्ग युद्ध से होकर जाता है तो युद्ध हो जाने दो" जरुरी नही युद्ध आज और अभी हो, जैसे मीडिया कहे ऐसे हो लेकिन जरुरी है दुश्मन को सबक सिखाना, बस ध्यान रहे जो शहीद हुए है उन्होंने देश के लिए ही जान दी है तो देश का भी कुछ कर्तव्य है उनके प्रति,

क्या मिलेगा युद्ध से : मैं भी जानता हूँ युद्ध होगा तो भरी नुकसान होगा, ना जाने कितने वीर सैनिक शहीद होंगे, गाँव के गाँव बर्बाद होंगे, कई शहर भी नष्ट हो सकते है, सरकार की माली हालात खराब हो जाएगी, उद्योग ठप हो जाएंगे, लेकिन जो मिलेगा वो होगा सेना का खोया हुआ आत्मसम्मान, चिरपरिचित दुश्मन से मुक्ति, रोज रोज की तू तू मैं मैं से मुक्ति , तब हम दोबारा अपनी अर्थव्यवस्था को दोबारा खड़ा कर सकते है उद्योग चला सकते है खुद को सुरक्षित महसूस कर सकते है, हमारी सेनाओं और हथियारों को जंग लग चुका है जरूरत है उन्हें खोई हुई धार वापस लौटाने की,

तो माननीय प्रधानमंत्री प्रधानसेवक नरेंद्र मोदी जी, अब ये लव लैटर लिखना बंद किया जाए, सेना को खोया आत्मसम्मान लौटाया जाए, दुश्मन ने सोये हुए सैनिकों को घर में घुस कर मारा है अब हमारी बारी है दुश्मन को उस से घर में घुस कर मारा जाए, और हाँ यदि आपसे नही होता तो तीनों सेनाओं के सरताज राष्ट्रपति जी बैठे ही उन्हें सौंप दिया जाए राज काज, यदि उनसे भी ना होता हो तो तैयार रहो तख्तापलट के लिए, आक्रोश में कब सेनाए आदेश का इंतज़ार करना बंद कर देंगी समझ भी नही पाओगे

Wednesday, September 7, 2016

मलाला और आतंकवादियों के मानवाधिकार

मलाला युसूफजई... वही लड़की जिसने शिक्षा पाने के अपने हक के लिये आवाज उठाई थी...बदले में आतंकवादियों ने उस पर गोली चला दी... गोली लगने के बावजूद वो बच निकली और रातोंरात स्टार बन गयी।

दुनिया भर की मीडिया ने उसे सर पर बैठाया, भारतीय मीडिया तो चार कदम आगे रही।

जानतें हैं उसके स्टार बनने की वजह?

अपने हक के लिये आवाज उठाना?

नहीं...बिल्कुल नहीं...हक के लिये तो हर दूसरा आदमी उठाता है...वजह थी गोली लगना और फिर बच निकलना।

मलाला आज जहाँ भी हैं खुद की नहीं आतंकवादियों की वजह से...मलाला के शोहरत की बुलंदियों पर  पहुँचने में आतंकवादियों का योगदान है...फिर वो जहाँ भी गयी, जिधर भी लेक्चर दिये, आतंकवाद के खिलाफ बोलीं वो सुरक्षा के बड़े घेरे में।

आलोचना नहीं कर रहा बता रहा की जिस तरह से मलाला को यूथ आईकन की तरह पेश किया गया वो बिल्कुल ही बचकाना था। मलाला ने ऐसा कोई तोप नहीं चलाया था ।

उनसे ज्यादा प्रतिभावान लोग पड़े हैं जो अपनी काबिलियत भर के दम पर विश्व को एक नई दिशा देने की क्षमता रखतें हैं...पर उनको गोलियां नहीं पड़ी इस वजह से कोई पूछता नही।
मलाला को गोली लगी इसलिये वो दुनियाभर के लिये क्रांतिकारी हो गयीं।

आज यही क्रांतिकारी कश्मीर मुद्दे पर आतंकवादियों के मानवाधिकार के लिये भाषण दे रही हैं...उन्ही मजहबी कट्टरपंथियों के लिये जिन्होंने गोली मारी थी...हमदर्दी छलक ही गयी।
किसी को भी अपना आदर्श बनाने  से पहले उसके बारे में बड़े अच्छे से सोच समझ लेना चाहिये..वरना यूं ही हड़बड़ी में गड़बड़ी होती है....मलाला ने ऐसा कोई योगदान नहीं दिया जिससे उन्हें लोगो के आदर्श के रूप में रिप्रेजेंट किया जाये.. आदर्श बनते हैं अपने कर्मो से , खुद के साथ हुये हादसों से नहीं।

बाकी मैं मलाला को आतंकवादियों के प्रति सॉफ्ट कॉर्नर रखने वाली थोड़ी कम कट्टरपंथी मानता हूँ।

Monday, July 11, 2016

परमवीर चक्र कैप्टन मनोज पांडेय

कैप्टन मनोज पांडेय।
उत्तर प्रदेश में पैदा हुआ था। सीतापुर जिले में। गांव का नाम है रुधा। गोपीचंद पांडेय लखनऊ में रहने वाले एक छोटे व्यापारी को बेटा हुआ था। तारीख थी 25 जून 1975। घर का सबसे बड़ा लड़का। बड़ा हुआ स्कूल जाने लगा। रानी लक्ष्मीबाई सिनियर सेकेंडरी स्कूल पहुंचा। पढ़ा खेला-कूदा। यहां से पहुंच गया उत्तर प्रदेश सैनिक स्कूल, लखनऊ। यहां शायद मनोज पांडेय को अपना सपना दिख गया था।

पढ़ता-लिखता खूब था। खेल भी खेलता था। क्रिकेट नहीं। बॉक्सिंग करता था। बॉडी बिल्डिंग का भी खूब शौक था। स्कूल खत्म हुआ। एनडीए का एग्जाम दिया। सेलेक्ट हो गया। इंटरव्यू के लिए बुलावा आया। SSB इंटरव्यू के लिए। क्या होता है SSB पता है? गए हो कभी? नहीं गए हो तो कोई बात नहीं। जो गया है उनसे पूछ लेना। बता देगा। 5 दिन में तुम्हारे-हमारे जैसे लौंडों के सारे कल-पुर्जे ठीक हैं कि नहीं, सब पता कर लेते हैं। दिमाग से लेके शरीर तक। गया हूं दो बार इसीलिए बता रहा हूं। अगर शौक है फ़ौज में अफसर बनने का तो वो 5 दिन सेलेक्ट हो ना हो, खूब मजे करोगे। अगर शौक न हो तो कतई मत जाना। खैर ..

अब आगे का किस्सा…

मनोज SSB के लिए पहुंचा। आखरी दिन। इंटरव्यू पैनल बैठा था।
सवाल:आर्मी क्यों जॉइन करना चाहते हो? अपने पूरे होश में सामने बैठा लड़का,
जिसने अभी हाई स्कूल पास किया है।जवाब देता है,
मुझे परम वीर चक्र चाहिए! पूरे बोर्ड में थोड़ी देर की चुप्पी रहती है।
फिर यहां से शुरू हुआ।
मनोज पांडेय के ‘परमवीर चक्र कैप्टन मनोज पांडेय’ बनने का सफ़र।
एनडीए जॉइन किया। MIKE स्क्वाड्रन मिला। ट्रेनिंग पूरी की।
गोरखा राइफल्स जॉइन करना चाहता था, मिल गया।

3 मई 1999, कारगिल युद्ध का संकेत मिल गया था। मई के महीने में शुरू हुए कारगिल युद्ध में शामिल हज़ारों जवानों में एक था, कैप्टन मनोज पांडेय। गोरखा राईफल्स। ये वही रेजिमेंट थी, जिसके लिए हिटलर भी तरसता था। कहते हैं, कभी उसने कहा था, ‘अगर गोरखाओं की फ़ौज मुझे मिल जाए तो मैं पूरी दुनिया पर काबू पा सकता हूं।’ कैप्टन मनोज पांडेय को इस पूरे ऑपरेशन विजय के दौरान एक नहीं कई मिशन में लगाया गया। और मनोज पांडेय एक-एक कर सब पूरा करता गया। 3 जुलाई को मनोज पांडेय को खालुबर हिल से दुश्मनों को खदेड़ने का टास्क मिला। सबसे बड़ी दिक्कत ये थी कि इस पूरे ऑपरेशन को रात के अंधेरे में अंज़ाम देना था।

मनोज अपनी पूरी पलटन के साथ आगे बढ़े। लेकिन एक जगह स्थिति ऐसी आई जहां से पलटन को दो हिस्सों में बटना पड़ा। आधा हिस्सा दाईं ओर से बढ़ा और बाईं ओर से खुद कैप्टन पांडेय पूरी पलटन को लिए आगे बढ़े।

कैप्टन मनोज एक-एक कर दुश्मनों के सारे बंकर खाली करते जा रहे थे। पहला बंकर बर्बाद करते हुए, मनोज ने आमने-सामने की लड़ाई में दुश्मन के दो लोगों को मार गिराया। दूसरा बंकर बर्बाद करते हुए कप्तान ने दो और दुश्मनों को मार गिराया। लेकिन तभी तीसरे बंकर की ओर बढ़ते हुए, मनोज को कंधे और पैर में दो गोलियां लग गईं। लेकिन मनोज ने यहां भी हार नहीं मानी और अपनी पलटन को लिए आगे बढ़ता रहा। आखिरकार दुश्मन के चौथे और आखरी बंकर को भी ध्वस्त कर दिया।

लेकिन शायद इस कप्तान ने अपनी पूरी ज़िन्दगी जी ली थी। गोलियां लगने से जख्मी हुआ कैप्टन मनोज पांडेय, शहीद हो गया।

जाते-जाते इसके आखरी शब्द थे, ‘ना छोड़नु’, नेपाली में। जिसका मतलब होता है किसी को भी छोड़ना नहीं!
और 24 साल का उत्तर प्रदेश में पैदा हुआ देश का सिपाही शहीद हो गया। लेकिन जाते-जाते भी उसने अपनी ताकत दुनिया को दिखा दी थी।

जब कैप्टन मनोज पांडेय का पार्थिव शरीर लखनऊ पहुंचा था तब पूरा लखनऊ अपने इस कप्तान को देखने के लिए उमड़ पड़ा था। पूरा शहर लबालब सड़कों पर चल रहा था, सिर्फ उस मैदान तक पहुंचने के लिए जहां उनका शहीद कप्तान उनका इंतज़ार कर रहा था।

मरणोपरांत परमवीर चक्र कैप्टन मनोज पांडेय को हमारा सलाम!

Friday, July 8, 2016

तख्ती

आज ही की बात है, अभी दोपहर को ऑफिस से आते है आदतन फेसबुक खोल कर देखा, मेरे पसंद के एक पेज #दूरदर्शन की पोस्ट सबसे ऊपर चमक रही थी, पोस्ट देखते ही लालसा बढ़ी चलो पढ़ लेता है जरूर अच्छी होगी,
हमेशा बचपन को वापस दिलाने वाली पोस्ट होती है आज भी वही बचपन का राग अलापा था, जिंदगी की इन अनेको भागदौड़ परेशानियों के बीच फिर से एक मुस्कराहट उड़ेल गया चेहरे पर,
मुद्दा वो ही था मेरी दुखती रग #पढाई से जुड़ा हुआ, आज तख्ती की फोटो डाली है पता नही कहाँ कहाँ से निकाल कर लाता है... अब यादे ताजा हुई तो मैंने भी अपनी लेखनी संभाल ली बचपन में मेरे पास जो तख्ती थी उसको लेकर मेरे मन में एक टीस हुआ करती थी उन दिनों, मेरी तख्ती पुरानी सी, आधा हत्था टूटी हुई, मोटी सी हुआ करती थी जबकी सभी दोस्तों के पास एकदम नई नवेली सुडौल, तो उनकी तख्तियों से मुझने अंदर ही अंदर हीन भावना और जलन होती थी जो आज से पहले मैंने किसी से ही कही, घर पर नई तख्ती के लिए भी नही बोल सकता था एक तो तख्ती अभी तक सही सलामत थी और दूसरी घर की स्थिति जानता था की जब तक टूटेगी नही मांगने से भी दूसरी नही मिलेगी तो कभी प्रयास ही नही किया, आज अनायास ही उस बेडौल से खिलौने की याद आ गयी
दरअसल वो हमारी खानदानी तख्ती थी 😜😜 मेरे चाचाओं से लेकर छोटे भाई तक सबने उसी से अपनी प्रारंभिक शिक्षा पूरी की, आज सोचता हूँ तो उसकी सारी कहानी समझ आती है पुरानी थी इसलिए मोटी और मजबूत थी, हत्था शायद मुझे मिलने से पहले ही आधा टूट चूका था शुरू में मुझे भी बड़ा चाव था तख्ती लिखने का स्कूल से आते ही सबसे पहले तवा उठा कर तख्ती साफ़ करने के बाद तख्ती पर तवे की कालिख पोतना, सुखाने के बाद उसे झाड़ना फिर घास के पत्तो से चिकना करना और फिर किसी दवाई की कांच की बोतल से उसे घोटना, उसे बाद सीधी लाइन खींचना लिखने के लिए, लेकिन इसके बाद सारी मेहनत बरबाद करने का वक्त आता था, हाहाहा अरे मतलब तख्ती लिखने का .... क्योंकि मेरी लिखाई मेरी सूरत से भी बुरी थी ... ओ हाँ थी नही आज भी है.. कभी नही सुधार पाया... कई बार कोशिस की लेकिन हर बार मंजिल से पहले ही थक कर काम लिखाई सुधारने का प्रयास बीच में ही अटक गया

आरक्षण

चलो मौसम अच्छा है बारिश हुई है मन थोडा अशांत है लेकिन चलो शायद लेखनी उसे शांत कर पाए इसीलिए हमने आज फिर अपने हथियार उठा लिए,
आज का मुद्दा है आरक्षण... सबसे विवादस्पद लेकिन सबसे ज्यादा चर्चा में भी है आमजन में
आरक्षण को समझने के लिए जरुरी है सबसे पहले ये जानना की आरक्षण है क्या : ...अब कोई कहेगा की आरक्षण भीख है, कोई कहेगा की आरक्षण हक़ है, कोई इसे जरुरत का नाम देगा, कोई नेताओ का बोया हुआ बीज बताएगा... सबका अपना अपना मत है, होना भी चाहिए यही आपके होने की पहचान है.... अब बात आती है मेरी... मेरे हिसाब से आरक्षण क्या है... तो भैया सीधी सी बात है.. परिभाषा, संविधान, कानून ना इन सब की मुझे जानकारी है ना अभी इनके बारे में सोच रहा है
मेरे हिसाब के तो आरक्षण कुछ भले नेताओ द्वारा बोया गया ऐसा बीज है जिसका उद्देश्य समाज के दलित पिछड़े तबके को सबके साथ लाकर खड़ा करना था लेकिन आरक्षण को जातियो से जोड़ना ही इसके मूल उद्देश्य से भटका गया और अब कुछ जातिविशेष के लोग इसे अपना हक़ मान बैठे है, साथ ही साथ आरक्षण का गलत प्रारूप योग्यता के साथ खिलवाड़ है इसमें भी कोई शक नही है इसलिए आरक्षण के मौजूदा प्रारूप को देश के लिए जहर कहना गलत नही होगा,
अब प्रश्न आता है की क्या आरक्षण अपने वास्तविक मकसद में कामयाब हुआ,
ये भी बड़ा ही जटिल प्रश्न है आरक्षण की कामयाबी को नाकारा भी नही जा सकता समाज में दलित समाज की हिस्सेदारी बढ़ना साफ़ दर्शाता है की काम तो हुआ है लेकिन इस काम की कीमत क्या है ये जानना भी बहुत जरुरी है किसी को सबल बनाने के लिए दूसरे को दुर्बल करने का प्रयास ही आज का आरक्षण है

Wednesday, May 25, 2016

A Train Journey And Two Names To Remember

1990 की घटना..
आसाम से दो सहेलियाँ रेलवे में भर्ती हेतु गुजरात रवाना हुई। रास्ते में एक स्टेशन पर गाडी बदलकर आगे का सफ़र उन्हें तय करना था। जिस प्रकार से ठहराया उसी प्रकार से सफ़र शुरू हुआ लेकिन पहली गाड़ी में कुछ लड़को ने उनसे छेड़-छाड़ की इस वजह से अगली गाड़ी में तो कम से कम सफ़र सुखद हो यह आशा मन में रखकर भगवान से प्रार्थना करते हुए दोनों सहेलियाँ स्टेशन पर उतार गयी और भागते हुए रिजर्वेशन चार्ट तक वे पहुची और चार्ट देखने लगी। चार्ट देख दोनों परेशान और भयभीत हो गयी क्योंकि उनका रिजर्वेशन कन्फर्म नहीं हो पाया.
मायूस और न चाहते उन्होंने नज़दीक खड़े TC से गाड़ी में जगह देने के लिए विनती की TC ने भी गाड़ी आने पर कोशिश करने का आश्वासन दिया....एक दूसरे को सांत्वना देते दोनों गाड़ी का इंतज़ार करने लगी। आख़िरकार गाड़ी आ ही गयी और दोनों जैसे तैसे कर गाड़ी में एक जगह बैठ गए...अब सामने देखा तो क्या?
सामने दो नौजवान युवक बैठे थे। पिछले सफ़र में हुई बदसलूकी कैसे भूल जाती लेकिन अब वहा बैठने के अलावा कोई चारा भी नहीं था क्योंकि उस डिब्बे में कोई और जगह ख़ाली भी नहीं थी। गाडी निकल चुकी थी और दोनों की निगाहें TC को ढूंढ रही थी शायद कोई दूसरी जगह मिल जाये......कुछ समय बाद टिकिट चैक करते हुए TC वहा पहुँच गया और कहने लगा कही जगह नहीं और इस सीट का भी रिजर्वेशन अगले स्टेशन से हो चुका है कृपया आप अगले स्टेशन पर दूसरी जगह देख लीजिये। यह सुनते ही दोनों के पैरो तले जैसे जमीन ही खिसक गयी क्योंकि रात का सफ़र जो था। गाड़ी तेज़ी से आगे बढ़ने लगी। जैसे जैसे अगला स्टेशन पास आने लगा दोनों परेशान होने लगी लेकिन सामने बैठे नौजवान युवक उनकी परेशानी के साथ भय की अवस्था बड़े बारीकी से देख रहे थे जैसे अगला स्टेशन आया दोनो नौजवान उठ खड़े हो गए और चल दिये....अब दोनों लड़कियो ने उनकी जगह पकड़ ली और गाड़ी निकल पड़ी कुछ क्षणों बाद वो नौजवान वापस आये और कुछ कहे बिना नीचे सो गए।दोनों सहेलियाँ यह देख अचम्भित हो गयी और डर भी रही थी जिस प्रकार सुबह के सफ़र में हुआ उसे याद कर खुद की समेटे सहमते सो गयी....सुबह चाय वाले की आवाज़ सुन नींद खुली दोनों ने उन नौजवानों को धन्यवाद कहा तो उनमे से एक नौजवान ने कहा " बेन जी गुजरात में कुछ मदद लगी तो जरुर बताना " ...अब दोनों सहेलियों का उनके बारे में मत बदल चुका था खुद को बिना रोके एक लड़की ने अपनी बुक निकाली और उनसे अपना नाम और संपर्क लिखने को कहा...दोनों ने अपना नाम और पता बुक में लिखा और "हमारा स्टेशन आ गया है" ऐसा कह उतर गए और भीड़ में कही गुम हो गए !

दोनों सहेलियों ने उस बुक में लिखे नाम पढ़े वो नाम थे नरेंद्र मोदी और शंकर सिंग वाघेला......

यह अनुभव आया वह लेखिका फ़िलहाल General Manager of the centre for railway information system Indian railway New Delhi में कार्यरत है और यह लेख
"The Hindu "इस अंग्रेजी पेपर में पेज नं 1 पर
"A train journey and two names to remember " इस नाम से दिनांक 1 जून 2014 को प्रकाशित हुआ है... !
तो क्या आप अब भी ये सोचते है कि हमने गलत प्रधानमन्त्री चुना है??

कोई माने नहीं तो लिंक देखे http://m.thehindu.com/opinion/open-page/a-train-journey-and-two-names-to-remember/article6070562.ece