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Sunday, February 12, 2017

ISI के जासूस और हम

समुदाय विशेष वाले आकर पुछते हैं कि मध्य प्रदेश में 11 ISI के जासूस पकड़े गये उसपर कुछ कहो,लिखो। दरअसल वह कहना चाहते थे जिस भाजपा को आप राष्ट्रवादी बताते हो उसके ही पार्टी के नेता के रिश्तेदार इसमें लिप्त है,इसलिये क्या आप इसके लिये भाजपा को ISI का एजेंट मानते हो?

मेरे प्यारे मित्र, आपका और आपके जैसे तमाम दोगली सोच वालों की दोगलीयत को सर्वप्रथम दंडवत प्रणाम। कल तक मोदी को शांतीदुत विरोधी और हिटलर बताने के लिये आप जिस पुलिस, ATS, NIA, Intelligence, फौज सबको मोदी के हाथों बिक गयी बताते थे आज उसके ही द्वारा पकड़े गये इन 11 लोगों के लिये आप इन संस्थाओं को शाबाशी दे रहे हैं। आप की इस मोदीविरोध में दोनों तरफ से खाना खा सकने वाली क्षमता का मैं कायल हो गया हूँ।

वैसे शाबाशी तो देनी ही होगी उस म.प्र. पुलिस को जिसे कल तक आप मुख्यमन्त्री शिवाराज सिंह की पुलिस कहते थे और उसके द्वारा भोपाल जेल से भागे गये आतंकीयों को ठोकने की वजह से उसे फेक एनकांउटर कह रहे थे। दरअसल दिक्कत यह थी कि वह भाजपा की सरकार थी और भागने वाले आपके समुदाय के थे। पर चलो आज आपने म.प्र पुलिस कि इस 11 लोगों की गिरफ्तारी पर भरोसा किया है तो यह प्रमाणित होता है कि म.प्र. पुलिस ईमानदार है, और वह एनकांउटर फेक नहीं था।

फिर मैं शाबासी दूँगा ATS को, जिसका इन्हें पकड़ने में योगदान है। वही ATS जिसे कल तक आप कल तक इशरत जहाँ का हत्यारा कहते थे, और मोदी के हाथों खेलने वाले संस्थान बताते थे। पर अब चूंकि ATS ने इन 11 लोगों को पकड़ा है और आप पुरी तरह आश्वस्त हैं कि यह 11 ISI के जासूस थे तो आप इस बात की पुष्टि करते हैं कि ATS जो करती है सही करती है। ATS ने इशरत को मारा बिलकुल सही किया। पर आप कल तक विरोध सिर्फ इसलिये करते रहे कारण इशरत आपके समुदाय की थी।

फिर शाबाशी देते हैं NIA तथा अन्य सुरक्षा एजेंसीयों का भी जिसे कल तक आप हर गिरफ्तारी के बाद समुदाय विशेष विरोधी बताते थे। और इनके द्वारा की गयी हर गिरफ्तारी में गिरफ्तार लोगों को मासुम बताते थे, कारण वह आपके समुदाय के होते थे। पर खैर आज आप जब NIA कि इस 11 गिरफ्तारीयों का स्वागत कर रहे हैं तो मैं मान लेता हूँ कि पहले  की गयी सभी गिरफ्तारीयों को भी आप सही मानते हो।

और अंत में हो सकता है फौज का भी योगदान रहा हो,वही फौज जिसे कल तक आप हत्यारा कहते थे कश्मीरी आतंकीयों को मारने पर, वही फौज जिसके द्वारा कि गयी सर्जिकल स्ट्राइक को आप फेक बताते थे,सबुत माँगते थे। पर आज आपका अचानक फौज पर जागा भरोसा बताता है कि आप फौज की अब तक की सारी कार्यवाई के साथ खड़े हैं,और उसे सही मानते हैं।

और पुरे देश की ओर से शाबाशी दूँगा भाजपा जैसी राष्ट्रवादी पार्टी का जिसने एक पल के लिये भी यह ना सोचा कि इससे पार्टी की बदनामी होगी कार्यवाई को रोक दिया जाये। जैसे अन्य पार्टीयाँ करती है। चूँकि आपके अनुसार पुलिस , NIA, ATS सब मोदी जी की है, मोदी के कहने पर कार्य करती है, इसका मतलब यह 11 ISI के कथित जासूसों को मोदी जी ने ही पकड़वाया है। अत: ऐसे प्रधानमंत्री का शत् शत् मनन जिनके लिये देश प्रथम है, बाकी सब बाद में। इसे ही तो कहते हैं एक राष्ट्रवादी सरकार का राष्ट्रवादी प्रधानमंत्री। यह घटना सबुत है इसका।

और हाँ वह जो 11 पकड़े गये हैं, वह सब हिंदू हैं शायद। और अगर वह आरोपी साबित होते हैं तो उन्हें फाँसी पर लटकाया जाये। उनका समर्थन और बचाव करने एक भी हिंदू नहीं आयेगा। उसके अंतिम यात्रा में याकूब जैसी भीड़ नहीं दिखेगी। उनके लिये हम रात को 3 बजे न्यायालय नहीं खुलवायेंगे।
कारण हमारे लिये आतंकी सिर्फ आतंकी है।
उसका मददगार भी गद्दार है। हमारे लिये मुल्क पहले, बाकी सब बाद में।
यह फर्क है हममें और आप में,
यह फर्क बना रहना चाहीये।

और कोई सवाल?

एक सनकी की कहानी

2 मिनट निकालकर पढ़िए.. क्योंकि ये डेढ़लाइन का चुटकला नहीं। लोगों को बताइए कि असली हीरो कौन हैं?
एसी नील्सन का एक सर्वे बताता है कि भारत में सिर्फ 12% महिलाएं ही सैनिटरी नैपकिन का प्रयोग करती हैं। ऐसा जागरुकता के अभाव और महंगे नैपकिन को खरीद पाने में असमर्थता के चलते है। ये उस देश का हाल है जहां लड़कियों को माहवारी की वजह से स्कूल जाने से रोक देना आम बात है। बावजूद इसके किसी भी पॉलिटिकल पार्टी को इस आंकड़े ने परेशान नहीं किया क्योंकि हम वो समाज हैं जो 'छोटे मोटे' मामलों पर सोचना पसंद नहीं करता मगर कोयंबटूर के एक आदमी ने इस बारे में सोचा। छोटी सी उम्र में पिता को खो देने और 14 साल की उम्र में स्कूल से निकाले जानेवाले कोयंबटूर के अरुणाचलम मुरुगनाथम ने सस्ते सैनिटरी नैपकिन को ही जीवन का लक्ष्य बना डाला। वो गरीब था। छोटे-मोटे काम-धंधे करता था। 19 साल पहले एक दिन उसने अपनी पत्नी को कुछ छिपाते देखा तो पूछने लगा। मालूम चला कि वो गंदा सा कपड़ा छिपा रही थी जिसका इस्तेमाल वो माहवारी के दौरान कर रही थी। मुरुगनाथम ने पत्नी से सैनिटरी नैपकिन खरीदने को कहा तो उसने बताया कि अगर वो ये करे तो घर का बजट ही बिगड़ जाएगा। मुरुगनाथम चौंका और पास की ही एक दुकान से सैनिटरी नैपकिन खरीदा। उसे अचंभा हुआ कि 40 पैसे की कॉटन के लिए कंपनियां 4 रुपए वसूल रही हैं। मुरुगनाथम ने फैसला किया कि वो खुद ही सस्ता सैनिटरी नैपकिन बनाकर पत्नी को देगा। मुरुगनाथम ने पत्नी को एक पैड बनाकर दिया और इस्तेमाल करके बताने को कहा। चुनौती ये थी कि माहवारी महीने में एक ही बार होती है और मुरुगनाथम को पैड जल्दी से जल्दी बनाना था। उसने प्रयोग के लिए दूसरी महिलाओं से बात करने की ठानी। आम महिलाएं नैपकिन प्रयोग कर नहीं रही थीं तो उसने किसी तरह मेडिकल कॉलेज की 20 लड़कियों को राजी किया पर फीडबैक शीट्स पर उन्होंने अपना फीडबैक ठीक से नहीं दिया। तीन लड़कियों ने सबके फॉर्म भर डाले। परेशान मुरुगनाथम ने अब खुद पर प्रयोग करने की ठान ली। फुटबॉल ब्लैडर निकाल कर उसने एक नकली गर्भाशय बनाया। अपने एक कसाई दोस्त से लेकर उसमें बकरी का खून भरा। सैनिटरी नैपकिन बनाकर खुद पहना। इसके बाद वो साइकिल चलाने जैसा काम करके देखने लगा ताकि दबाव पड़ने से खून बहे और वो नैपकिन को टैस्ट कर सके। ये सब मालूम पड़ने पर दोस्तों और पड़ोसियों ने मुरुगनाथम से दूरी बनानी शुरू कर दी। कोई गाली देता तो कोई मज़ाक बनाता। खुद उसकी पत्नी डेढ़ साल बाद घर छोड़कर चली गई। मुरुगनाथम ने प्रयोग जारी रखा। अब उसने सोचा कि इस्तेमाल किए हुए सैनिटरी नैपकिन देखे जाएं और मालूम किया जाए कि वो कामयाब क्यों हैं। उसने फिर मेडिकल कॉलेज की लड़कियों से उनके इस्तेमाल किए जा चुके नैपकिन मांगे। वो उन पर चुपके से घर के पीछे जाकर शोध करता था। इस सनक से परेशान होकर एक दिन मां भी चली गई। मोहल्ले में भी विरोध बढ़ने लगा। माना गया कि मुरुगनाथम पर कोई भूत सवार है और तांत्रिक से इलाज कराया जाए। किसी तरह उसने काम जारी रखा। बार-बार असफल मुरुगनाथम ने अब नैपकिन बनानेवाली कंपनियों से ही पूछना शुरू किया कि वो नैपकिन कैसे बनाती हैं। ज़ाहिर है, कोई उसे क्यों बताता लेकिन कुछ ना कुछ झूठ बोल कर उसने मालूम कर लिया कि नैपकिन में सिर्फ कॉटन नहीं होती बल्कि पेड़ की छाल से निकले सैल्युलोज़ का इस्तेमाल भी होता है। सवा दो साल बाद ये बात मालूम तो चल गई लेकिन दिक्कत ये थी कि ऐसा नैपकिन बनाने के लिए जैसी मशीन चाहिए थी वो बहुत महंगी थी। साढ़े चार साल की कड़ी मेहनत के बाद मुरुगनाथम ने ऐसी छोटी मशीनें बना लीं जो किसी तरह सस्ता सैनिटरी नैपकिन बना लेती थीं। इस काम को समझने और करने में एक घंटा लगता था। दरअसल अब तक मुरुगनाथम की सोच बदल चुकी थी। उसने सस्ते सैनिटरी नैपकिन बनाने की बात तो सोची ही थी, साथ में अब वो ऐसा तरीका विकसित करना चाहते थे जिससे नैपकिन बनाने का काम महिलाएं ही सीख जाएं और उन्हें इस काम की अच्छी कीमत भी मिल सके। आखिर मुरुगनाथम ने अपनी मां की मजबूरियां भी देखी थीं। मुरुगनाथम लकड़ी की बनी अपनी मशीन को IIT मद्रास ले गए और काम दिखाया। मल्टीनेशनल के सामने अपनी लकड़ी की मशीन से लोहा लेने के उनके जज़्बे से वैज्ञानिक हक्के बक्के थे। IIT मद्रास के नेशनल इनोवेशन अवॉर्ड कंपटीशन की 943 मशीनों में मरुगनाथम की मशीन नंबर वन थी। तत्कालीन राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने जब मुरुगनाथम को सम्मानित किया तो ये ड्रॉप आउट अचानक ही सुर्खियों में आ गया। आखिर साढ़े 5 साल बाद उसकी पत्नी का पहला फोन आया। वो वापस घर आना चाहती थी। दूरदर्शी मुरुगनाथम ने मशीन को पेटेंट कराने से इनकार कर दिया। डेढ़ साल बाद मुरुगनाथम ढाई सौ मशीनों के साथ खड़ा था जिन्हें उसने बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान और यूपी पहुंचा दिया। उसके सामने चुनौती थी कि पूर्वाग्रहों और शर्म से भरे इन इलाकों में महिलाओँ को इन मशीनों और सैनिटरी नैपकिन के बारे में कैसे बताए। हार ना माननेवाले मुरुगनाथम ने धीरे-धीरे ये भी किया और जल्दी ही 23 प्रदेशों के 1300 गांव में मुरुगनाथम की मशीन चमत्कार करने लगी। नैपकिन बनानेवालों ने खुद ही उसे बेचना शुरू कर दिया। यहां तक कि बदले में महिलाओँ ने पैसों के बदले घर का सामान तक खरीद लिया। एनजीओ और महिलाओं के दूसरे संगठन आगे आने लगे। एक मशीन की कीमत 75 हज़ार रुपए थी। हर मशीन एक दिन में 200-250 नैपकिन बनाती है जिसमें प्रति नैपकिन ढाई रुपए का बेचा गया। हर ग्रुप ने खुद अपना ब्रांड नेम चुना और पैक करके बेचना शुरू कर दिया। 23% लड़कियों को माहवारी शुरू होते ही घरवाले स्कूल भेजना बंद कर देते थे। मुरुगनाथम ने स्कूलों को ये नैपकिन उपलब्ध करा दिए। सस्ता सैनिटरी नैपकिन अब देश से बाहर निकलकर केन्या, नाइजीरिया, मॉरिशस ,फिलीपींस, बांग्लादेश जा पहुंचा। सरकार ने घोषणा की कि सब्सिडाइज़्ड नैपकिन औरतों में बांटे जाएंगे।
मुरुगनाथम जीप खरीद चुका है। एक शानदार अपार्टमेंट में परिवार के साथ रहता है। इससे ज़्यादा की चाह उसे नहीं है। वो पलट कर पूछता है कि, ‘अमीर होने के बाद आप एक एक्सट्रा बैडरूम का फ्लैट ले भी लेंगे तो क्या.. मरना तो है ही ना।‘
मुरुगनाथम यूनिवर्सिटी और कॉलेज में जाकर एक बात कहते हैं- ‘अच्छा हुआ कि मैं अनपढ़ हूं। अगर आप अनपढ़ की तरह रहते हैं तो ज़िंदगी भर कुछ ना कुछ सीखते रह सकते हैं।‘
मुरुगनाथम के साथ आज ना सिर्फ उनका पड़ोस है बल्कि सारा इलाका खड़ा है। एक बार उनसे पूछा गया कि क्या राष्ट्रपति से अवॉर्ड लेना उनकी ज़िंदगी का सबसे सुखद पल था तो उन्होंने इससे इनकार कर दिया। उन्होंने बताया कि सबसे गर्वीला क्षण वो था जब उन्होंने उत्तराखंड के एक ऐसे इलाके में मशीन लगाई जहां पीढ़ियों से किसी ने इतना पैसा नहीं कमया था कि बच्चों को स्कूल भेजा जा सके। साल भर बाद उनके पासएक महिला का फोन आया जिसने बताया कि अब उसकी बेटी स्कूल जा सकती है,’जहां नेहरू फेल हो गए थे, वहां उनकी मशीन कामयाब हो गई।’  2014 में मुरुगनाथम टाइम्स मैग्ज़ीन की विश्व के सौ प्रभावशाली लोगों की लिस्ट में से एक थे। 2016 में भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री दिया। खबर है कि फिल्म निर्देशक बाल्की उन पर फिल्म बना रहे हैं।
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क्रेडिट: नितिन ठाकुर

Monday, February 6, 2017

फिट है तो हिट है

पूर्वोत्तर और मांसाहार का चोली और दामन का साथ है...कोई कुछ भी कर ले हमारे मांसाहार छोड़ने का तो सवाल ही नहीं उठता. मनुष्य प्रथम श्रेणी का उपभोक्ता नहीं है . हम तो यही मानते है कि  घास खाना बकरियो का काम है हम सर्वाहारी हैं अपने खाने का बंदोबस्त कर लेंगे..बकरियों को घास खाकर मोटी तो हो लेने दो. किसी न किसी दिन लिन्डेमाँन के 10 प्रतिशत ऊर्जा स्थान्तरण वाले नियम का प्रायोगिक सत्यापन कर ही लेंगे.

मेरे नार्थ इन्डियन मित्र जब जब शाही पनीर , कढ़ाई पनीर ,,,कूकर पनीर,,और तवा पनीर जैसे दूध के बने अनगिनत  हज़ारो आयटम गिनाने लगते है तो हम जैसे चिकेन और मटनछाप लोगो को फिर से चिकेन और मटन की तलब लग जाती है...और उसी दिन धरती से एक डेढ़ दो  किलो का देशी या  बायलर मुर्गा कुकर की चार पांच सीटी में निपट जाता है.

देखो ! दुनिया में कोई चीज गलत या सही नहीं होती. यहाँ तक की जीव हत्या भी एक साइड से जस्टीफ़ाइड ही होती है .मरने वाले को हत्या गलत लगती है मारने वाले को नहीं . मारने वाले आततायी होते हैं , उन्हें अफ़सोस तक नहीं होता . वैसे  भी उत्तर भारतीय लोग बहुत ही कोमल होते हैं ये चिकेन की गर्दन नहीं उड़ा सकते . खाने में शाकाहार को ज्यादा वरीयता देते हैं. हमारे यहाँ  शाक वाक ऐसे तो  कभी बनता नहीं हाँ  कोई विशेष मौका हो तो अलग बात है. यही लगभग सभी पूर्वोत्तर वालों की हकीकत है.

उत्तर भारतीय लोग शाक खाते है , शायद शाक खाने वाले लोग कोमलांगी  होते होंगे  इसलिए तो पनीर को भी चाकू से काटते हैं.जितनी देर में ये  250 ग्राम पनीर को चाकू से कभी आयताकार तो कभी वर्गाकार आकृति में काटते रहते है उतनी देर में हमारे यहाँ छोटे छोटे भी  बच्चे चिकेन की गर्दन मरोड़ कर उसके लेग पीस को अलग कर उसमें हल्दी लगाकर आधा किलो प्याज के साथ ढक देते हैं.

फिलहाल  !  खाने पर मत जाइए ,,, बात समझिये.

असल में होता ये है कि गलत या सही होना हमारे नजरिये पर निर्भर करता है .जो लोग दुनिया के बाकी लोंगो को चिकेन समझकर उनकी गर्दन उड़ा देते है आप को उनकी ये हरकत बेशक गलत लगती हो पर उन्हें अपने इस कृत्य पर रत्ती भर भी अफ़सोस नहीं होता. हम लोग चिकेन खाकर  जिस तरह से डकार मारते है वैसे ही ये भी  लोगों की गर्दन उड़ाने के बाद अट्ठहास करते होंगे. विश्व के साथ साथ भारत में भी गर्दन उड़ाये जाते रहने का पुराना इतिहास रहा है जो कि गजनी से लेकर आज तक बदस्तूर जारी है. इतिहास गवाह है भारत में होने वाली ज्यादातर घुसपैठ उत्तर भारत से ही हुई है. गजिनी , गौरी , बाबर  ,,नादिर शाह और ऐसे न जाने कितनों ने ही भारत में घुसने के लिए उत्तर के रस्ते को चुना.
जो भी आया उसने घास फूस की तरह काटा.हम प्रतिरोध करने में  असमर्थ रहे. उनकी अधीनता तक स्वीकार कर ली.
कहाँ  कमी थी ?
हम बिनम्र तो थे .
हम बलशाली भी  तो थे . तो  फिर !
लेकिन हम "फिटेस्ट " नहीं थे.क्यों की हमारे अंदर  दुश्मनो का गर्दन उतारने का वह तेवर नहीं था जो की उन हमलावरों के अंदर था.

अब आप की बात करते है फिर से .आप शाक इसलिए खाते हैँ क्यों की आप के अंदर दयाभाव का  अनावश्यक ओवरफ्लो होता रहता है. अतः आप चिकेन को एक झटके में उसकी गर्दन से अलग नहीं कर सकते. आपके हाथ  चिकेन तक काट नही सकते युद्ध क्या लड़ेंगे.जो कौम चिकेन तक नहीं काट सकती  उससे दुश्मनों के सर काटने की उम्मीद बेमानी है .क्या पता हारने की एक वजह ये भी रही हो की देश पर हमलावरों के सिर काटते समय आपके सैनिको के हाथ काँप रहे हों .पृथ्वीराज चौहान , महाराणा प्रताप जैसे न जाने कितने  वीर क्या पता अकेले पड़ गए हो . सलाम है उन्हें की उन्होंने मरते दम तक लड़ाई तो की. नार्थईस्ट वालों के कद छोटे होते हैं.हम  ज्यादातर मांसाहार पर  ही जिन्दा रहते  हैं .याद करिए ! जिस बख्तियार खलजी के  दम पर गौरी ने उत्तर भारत से लेकर  बंगाल तक कब्ज़ा कर लिया था. उसी बख्तियार खलजी का पूर्वोत्तर में क्या हश्र हुआ. इसके लिए इतिहास पर  फिर  से नजर डालिये .

जैसा कि आपको मालूम है कि दुनिया  " सरवायवल ऑफ़ द फिट्टेस्ट" की थ्योरी पर चलती है. चाक़ू से पनीर को दांत पीसपीस कर काटने वालों को ये बात समझनी चाहिए.कोमलता शारीरिक नहीं होनी चाहिए.शारीरिक कोमलता हमे सहन शील होने पर मजबूर कर देती है. मजबूरी  में दिखाई गयी सहनशीलता और कुछ नहीं बस कायरता का  ही एक छदम् रूप है.

पनीर वालों  ! सहनशील नहीं शक्तिशाली बनो. फि्टेस्ट बनो. चिकेन खाना जरुरी नहीं पर काटना  जरुर सीख लो. वरना सही समय पर हाथ कापेंगे. अनावश्यक दयाभाव  के प्रदर्शन से दूर रहिये .क्यों की डार्विन अंकल कह के गए हैं -'जो सबसे फिट है वही दुनिया में रहने के लायक है"..आखिर भले ही हिंसा गलत तो है पर  जब बात सुरक्षा की हो तो  बेहद जरुरी है .

  "काफी पहले कहीं पढ़ा था याद आया तो आप सब के साथ साझा कर लिया"

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