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Thursday, October 1, 2020

शास्त्री जी

यह किस्सा तबका है जब लाल बहादुर शास्त्री जी गृह मंत्री थे. एक बार वे और मशहूर पत्रकार कुलदीप नैयर दिल्ली के क़ुतुब एन्क्लेव इलाके से वापस आ रहे थे , दिल्ली के एम्स के पास एक रेलवे फाटक था । ट्रेन आने वाली थी. फाटक बंद था । गृह मंत्री की गाड़ी रुक गयी । कार के बगल में गन्ने वाले को देखकर शास्त्री बोले, ‘कुलदीप, जब तक फ़ाटक खुलता है क्यूं न गन्ने का रस पिया जाए?’

जब तक कुलदीप नैयर कुछ कहते, लाल बहादुर शास्त्री जी उतरे, गन्ने वाले को पैसे दिए और दो गिलास रस ले आये । कुछ देर बाद फ़ाटक खुला और उनकी गाड़ी आगे बढ़ गयी । गन्ने वाले को शायद ही पता चला हो कि उसका ग्राहक गृह मंत्री था । उस जमाने में प्रधानमंत्री की भी गाड़ी में एक ही सिपाही होता था ।ऊपर से शास्त्री जी तो किसी भी तरह से रोबीले व्यक्ति नहीं लगते थे । उनका आचरण बेहद सादगी भरा था । इतना कि जब वे गृह मंत्री नहीं रहे तो अपने घर में ज़रूरत से ज़्यादा बिजली इस्तेमाल नहीं करते थे । जब किसी ने पूछा कि क्यों वे अक्सर एक बल्ब की रोशनी में ही काम निपटाते हैं तो उनका ज़वाब था, ‘अब मैं गृह मंत्री नहीं हूं, इतना ख़र्च नहीं उठा सकता ।’

भारतीय राजनीति में जब भी सादगी की बात होगी, लाल बहादुर शास्त्री जी सबसे पहले पायदान पर होंगे, पर देश को संभालने के लिए सादगी काफी नहीं होती, शास्त्री जी की सादगी उनके व्यक्तित्व पर अक्सर भारी रही है, लेकिन सादगी उनके व्यक्तित्व का सिर्फ एक पक्ष थी । संकटों को सुलझाने की उनकी काबिलियत और मजबूत फैसले करने जैसी बातें भी उन्हें बाकी राजनेताओं से अलहदा बनाती थीं ।

बतौर गृहमंत्री लाल बहादुर शास्त्री जी ने चीन की लड़ाई देखी थी और जवाहर लाल नेहरू की तरह वे चीन को लेकर किसी मुगालते में नहीं थे । एक साक्षात्कार में कुलदीप नैयर ने इस बात का जिक्र किया था. कुलदीप नैयर के मुताबिक शास्त्री जी ने उनसे कहा था, ‘चीन एक दिन धोखा देगा और पंडितजी ये बात समझ नहीं रहे हैं’ ।

ऐसा ही हुआ, जंग हुई, रणनीतिक ग़लतियां हुईं और भारत हारा । इस हार के पीछे लेफ्टिनेंट जनरल कौल का पूर्वी कमान का अध्यक्ष होना एक कारण बताया जाता है । कौल कश्मीरी थे और रक्षा मंत्री वीके मेनन के ख़ास विश्वस्त. फौज से ज़्यादा फौजियों के हाउसिंग प्रोजेक्ट में दिलचस्पी लेकर वे अपनी समाजवादी छवि चमकाने में लगे रहते । शास्त्री कौल की नियुक्ति पर अपनी नाराज़गी ज़ाहिर कर चुके थे, पर उनकी नहीं सुनी गई । बताते हैं कि चीन के हमला बोलने के कुछ दिनों बाद कौल साहब पेट की गड़बड़ी को लेकर दिल्ली चले आये थे । दरअसल, वे मोर्चे पर सारे गलत रणनैतिक फ़ैसले कर रहे थे और देश ख़ामियाज़ा भुगत रहा था । उनकी ग़ैर मौजूदगी में लेफ्टिनेंट जनरल हरबक्श सिंह ने दिलेरी से कमान संभाली । इसके पहले अपने पर अमिट कलंक लगे, जनरल कौल वापस कमान संभालने आ गए. पर तब तक चीन जंग जीत चुका था ।

जब चीन ने एकतरफ़ा युद्ध विराम किया तो लाल बहादुर शास्त्री असम के तेजपुर गए । जनरल कौल ने उन्हें शांति समझौता करने की सलाह दी । शास्त्री जी ने अनसुना कर दिया ।उनके रवैये से कौल समझ गए कि उनके दिन पूरे हो गए हैं । हार के कई कारण थे जैसे नेहरू का चीन को लेकर ग़लत आकलन, फौज में संसाधनों की कमी की तत्कालीन सेनाध्यक्ष पीएन थापर की शिकायत न सुना जाना और मोर्चे पर लेफ्टिनेंट जनरल कौल की रणनीतिक गलतियां,  पर ठीकरा फूटा सेनाध्यक्ष थापर के सर पर । उन्हें इस्तीफ़ा देने का हुक्म सुना दिया गया. संसद तो वीके मेनन की गर्दन लेकर ही शांत हुई ।

इस हार से भारत की स्थिति कमज़ोर हुई, पश्चिमी देश भारत पर कश्मीर को लेकर पाकिस्तान से बातचीत करने का दबाव बनाने लगे । अमेरिका ने इसके लिए नेहरू के बजाय शास्त्री जी को तरजीह देने की कोशिश की । इससे पता चलता है कि उनका रसूख़ बढ़ गया था ।

फिर कुछ दिनों बाद कश्मीर में ‘मू-ए-मुक़द्दस’ का मामला हो गया । यह पैगंबर साहब के बाल की चोरी की घटना थी । इसे संभालने में अगर ज़रा सी भी चूक हो जाती तो भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश में तो हिंदू-मुस्लिम दंगे होते ही, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मुस्लिम देशों में भारत की किरकिरी हो जाती । शास्त्री जी इस दौरान गृह मंत्री नहीं थे. वे ‘मिनिस्टर विदआउट पोर्टफ़ोलियो’ कहे जाते थे पर नेहरू को किसी और पर यकीन नहीं था । उन्होंने शास्त्री जी को ही इसे संभालने का ज़िम्मा दिया और शास्त्री ने निराश नहीं किया । अब वे नेहरू के बाद प्रधानमंत्री की कुर्सी के और मज़बूत दावेदार बन गए थे । इतने कि अमेरिकन पत्रकार वैलेस हेन्गेन अपनी किताब ‘आफ्टर नेहरु हू’ में सीधे-सीधे तौर पर शास्त्री जी को उनका उत्तराधिकारी घोषित किया ।

नेहरू के अचानक निधन की वजह से जब कांग्रेस में प्रधानमंत्री बनने की दौड़ मची तो लाल बहादुर शास्त्री जी पीछे ही रहे । मोरारजी देसाई ने खुल्लमखुल्ला अपनी दावेदारी पेश की थी । शास्त्री जी का रुख इसके ठीक उलट था. वे पार्टी में चुनाव के बजाय रायशुमारी से पीएम बनने की बात कर रहे थे । यह तब है जब वे ‘कामराज प्लान’ के तहत गृह मंत्री के पद से इस्तीफ़ा देकर एक बल्ब की रोशनी में काम करते थे. राजनीति में कुर्सी न हो, तो कोई नहीं पूछता. लेकिन शास्त्री जी तब भी लोकप्रिय थे ।

1965 की भारत-पाक जंग लाल बहादुर शास्त्री जी जीवन का सबसे कठिन इम्तिहान थी । जिस तरह नेहरू चीन से दोस्ती की बात करते थे उसी तरह शास्त्री जी पाकिस्तान के साथ रिश्ते सुधारने के इच्छुक थे । पाकिस्तान के मुखिया अयूब खान ने उनके पीएम बनने को दोनों मुल्कों के रिश्ते के लिए शुभ माना था । किस्मत की बात कहें या शास्त्री जी का कॉमन सेंस कि वे किसी भुलावे में नहीं आये. जब कच्छ में दोनों मुल्कों की सेनाओं के बीच झगड़े बढ़े तो उन्होंने पलटवार करने में नेहरू की तरह देर नहीं लगाई । यहां वही लेफ्टिनेंट जनरल हरबक्श सिंह पश्चिमी कमान संभाल रहे थे. वे पेट की ख़राबी को लेकर दिल्ली नहीं आये, बल्कि उनकी दिलेरी ने पाकिस्तानी अफ़सरों का हाज़मा ज़रूर ख़राब कर दिया ।

भारत का पलड़ा भारी होने पर भी इस युद्ध का परिणाम तो ड्रा ही कहा जाता है । तिथवाल और हाजी पीर कब्ज़े में आ गया था, भारतीय सैनिक लाहौर हथिया सकते थे, पर 23 सितंबर को हुए युद्धविराम ने कई लोगों को चौंका दिया । कुलदीप नैयर अपनी किताब ‘बियॉन्ड द लाइन्स’ में लिखते हैं कि शास्त्री जी  ने फ़ीरोज़पुर दौरे के दौरान सैनिकों को युद्धविराम की घोषणा के पीछे ‘फॉरेन प्रेशर’ की बात कही । उन्होंने कहा कि अमेरिका के दबाव में उन्हें ऐसा करना पड़ा क्योंकि वह भारत को आर्थिक और खाद्य मदद दे रहा था ।

युद्ध के बाद लाल बहादुर शास्त्री जी काफ़ी लोकप्रिय हो गए थे । उनका, ‘जय जवान, जय किसान’ नारा लोगों के सर चढ़कर बोला । एक हार्टअटैक झेल चुके शास्त्री जी जब पाकिस्तान से बातचीत करने ताशकंद गये तो लोगों की उम्मीदों का पहाड़ भी अपने साथ ले गए. भारत-चीन युद्ध की खटास को इस लड़ाई के अंजाम ने कम जो किया था । ताशकंद समझौते को लेकर देश में अलग-अलग राय बनी ।  कुछ को यह भारत के हित में लगा, तो कुछ ने शास्त्री जी की देश-विरोधी कहा. बताया जाता है कि समझौते की रात उन्होंने घर फ़ोन करके परिवार वालों की राय मांगी तो उन्हें निराशा हुई । उसी रात शास्त्री जी का दिल कमज़ोर पड़ा और हमेशा के लिए थम गया ।

कुलदीप नैयर लिखते हैं कि वैलेस हेन्गेन की तरह उन्होंने शास्त्री जी से पूछा था कि उनकी सेहत ख़राब रहती है और अगर कुछ अनहोनी हो गयी तो, ‘आफ्टर शास्त्री हू?’ शास्त्री जी का जवाब था कि अगर वे तीन या चार साल और जीवित रहे तो यशवंतराव बनें और अगर वे एक या दो साल में चल बसें तो इंदिरा गांधी को उनका उत्तराधिकारी चुना जाना चाहिए ।

गांधी जयंती : सत्य के साथ मेरे प्रयोग

  गांधी जयंती विशेषांक
मेरी तरह आप सब भी बचपन से लेकर आज तक बार बार ये ही पढ़ा होगा कि गांधी जी सत्य और अहिंसा के बहुत बड़े पुजारी थे 
   
सत्य और अहिंसा की ऐसी प्रतिमूर्ति मिलना असंभव है । गांधीजी केवल उन्हीं का विरोध नहीं करते थे जो स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए शस्त्र प्रयोग करना चाहते थे बल्कि उन लोगों का भी विरोध करते थे जिनके विचार गांधी जी के विचारों से भिन्न थे गांधीजी की अप्रसन्नता का एक पात्र सुभाष चंद्र बोस भी थे जहां तक मुझे पता है सुभाष चंद्र 6 वर्षों तक जब देश से बाहर रहे तो गांधीजी ने उन पर प्रतिबंध का कोई विरोध नहीं किया । सुभाष चंद्र बोस पहली बार कांग्रेस अध्यक्ष पद पर रहते हुए कभी गांधी जी की नीति पर नहीं चले, फिर भी सुभाष चंद्र बोस इतने लोकप्रिय हुए कि गांधीजी की इच्छा के विरुद्ध डॉ पट्टाभि सीतारमैया के विरोध में प्रबल बहुमत से चुने गए और डॉक्टर पट आप भी सीतारमैया के आंध्र से भी सुभाष चंद्र बोस को ही अधिक मत मिले । गांधी जी इस कारण अथाह क्षोभ में थे तब उन्होंने कहा कि "सुभाष की जीत गांधी की हार है" गांधी जी के मन में सुभाष चंद्र बोस के प्रति विष भर आया और द्वेष अग्नि में जलते हुए वे त्रिपुरा कांग्रेस अधिवेशन में नहीं गए और बहानेबाजी से राजकोट में अनशन और सत्याग्रह छेड़ कर बैठ गए । जिस समय तक सुभाष चंद्र बोस को कांग्रेस अध्यक्ष की गद्दी से नहीं उतार दिया गया तब तक उनका क्रोध शांत नहीं होगा ।
   सुभाष चंद्र बोस के दूसरी बार कांग्रेस अध्यक्ष चुने जाने और यहां से बाहर जाने की घटनाएं यह प्रकट करती हैं कि गांधी जी किस प्रकार कांग्रेस से अपना काम निकाल लेते थे । 1934 के बाद से ही गांधी जी बार-बार यही कहते रहे कि वह कांग्रेस के चार आने के सदस्य भी नहीं है और उनका कांग्रेस से कोई संबंध नहीं है किंतु सुभाष चंद्र बोस जब दूसरी बार कांग्रेस अध्यक्ष चुने गए तब गांधी जी के क्रोध से यह पता चल गया कि वही कांग्रेश हैं और हर कार्य में खूब हस्तक्षेप करते थे जबकि वह कहते थे कि उनका कांग्रेस से कोई संबंध नहीं है । 
   झूठ बोलने का इससे सुंदर उदाहरण और कहां मिलेगा

#सत्य_के_साथ_मेरे_प्रयोग

Wednesday, September 30, 2020

हाथरस और हम

क्या मैं हाथरस पर कुछ ना लिखूं ? क्या मैं हाथरस पर चुप रहने का रास्ता चुन सकता हूँ ? मेरे पास हजार कारण है चुप रहने के, लेकिन बोलने का जो कारण है वो उन सब से बड़ा है वो है लड़की का बलात्कार और हत्या हुई है । 

हाथरस घटना : 
  मीडिया और सोशल मीडिया के ट्रायल के बाद ये बात समझ आई है कि मामला आपसी दुश्मनी का परिणाम है, लड़की अपनी माँ के साथ खेत मे गयी थी वहीं मुख्य अपराधी ने दबोच ली, बलात्कार किया, जिस दौरान लड़की का गला दबाया गया, जबरदस्ती मार पिटाई बचने का प्रयास इस सब के दौरान लड़की की जीभ उसी के दांतों से कट गई, लड़की को गर्दन और रीढ़ की हड्डी में भयानक चोट आई, जिसकी वजह से इलाज से दौरान अस्पताल ने लड़की की मौत हो गयी । 
   फिर आपसी दुश्मनी का भी एंगल था तो आरोपी एक से चार हो गए, 

  इसके बाद जब मामला मीडिया में आया तो पुलिस भी हरकत में आई चारो आरोपी /अपराधी गिरफ्तार कर लिए गए । मामले पर राजनीति थोड़ी और गहराई तो पुलिस ने हंगामे के डर से घर वालो की उपस्थिति में रात में ही अंतिम संस्कार करा दिया । बवाल और ज्यादा हंगामे राजनीति और लाश की दुर्गति से बचने के लिए । 

   राजनीति गलियारों में हंगामा शुरू हुआ तो  मुख्यमंत्री साहब में SIT गठित कर दी त्वरित  जांच के लिए, मुआवजे , नौकरी और घर की भी घोषणा कर दी। मामला फास्टट्रैक कोर्ट को भी ट्रांसफर कर दिया । 
  
  जनता क्या चाहे.... तुरंत दान महकल्याण । 
गाड़ी पलट दो, एनकाउंटर कर दो, गोली मार दो, फांसी दे दो । न्याय न्याय न्याय । 

 राजनीति के दुकानदार कुछ भी कहे लेकिन जनता की भावनाएं भड़क चुकी है, वो फेसबुक वाट्सएप ट्विटर पर धड़ाधड़ कॉपी पेस्ट शेयर करेगी, डीपी बदलेगी मोमबत्ती भी जलाएगी यदि कहीं फ्री में बट रही होंगी।  

  बाकी बदलेगा कुछ नही इसके उसके इनबॉक्स में अभी भी लार चुवाने जाएँगे, गली नुक्कड़ पर खड़े होकर माल ताड़ेंगे, आँखे सकेंगे। फेसबुक वाट्सएप पर संत का चोला पहन कर क्रांतिकारी भी बनेंगे ।

   लेकिन यदि इतने हंगामे के बाद भी गाड़ी ना पलटी, या भागने का प्रयास ना किया तो धिक्कार है... धिक्कार है उत्तरप्रदेश सरकार, धिक्कार है उत्तरप्रदेश पुलिस, धिक्कार है उत्तरप्रदेश प्रशासन, 

   लोकतंत्र है तो लोकमत का सम्मान करना ही होगा, कानून और न्याय वही है तो जनता को प्रसन्न रख सके अंततः ये सरकार का धर्म है ये ही कर्तव्य है । मैं बहुसंख्यक जनता के साथ हूँ, मैं चाहता हूँ जल्द से जल्द गाड़ी पलटे, या अपराधी भागने का प्रयास करे । लेकिन जिस तरह गाड़ी पलटने पर पुलिस बच जाती है उसी तरह वो तीन भी बच जाए, गोली उनके भी हाथ जांघ या कोहनी को छू कर निकल जाए लेकिन जो मुख्य अपराधी है उसकी गाड़ी पलटनी ही चाहिए । क्योंकि मैं नही चाहता 10-20 या पचास साल बाद गवाहों सबूतों की कमी कहकर मामला रफा दफा हो या 10 -5 साल की सजा देकर इन्हें बाहुबली , नेता या अपराधी बनाया जाए ।

लोकतंत्र में लोकमत का सम्मान करना ही पड़ेगा योगी जी। 

गांधी जी और भुला दी गयी सच्चाई


    बड़ी संख्या में लोग इस भ्रम में हैं कि भारतीय स्वतंत्रता का आंदोलन 1914 - 15 में उस समय प्रारंभ हुआ जब गांधी जी जेल गए और 15 अगस्त 1947 को समाप्त हो गया जब "राष्ट्रपिता" गांधी के नेतृत्व में स्वतंत्रता मिल गई । सहस्त्रों वर्षों के इतिहास में ऐसा कोई उदाहरण नहीं है जब इतने अधिक लोगों को धोखे में रखा गया हो और वे उस धोखे पर विश्वास करते गए हो ।

भारत में गांधीजी के पूर्व भी शताब्दियों से ऐसा स्वतंत्रता आंदोलन चल रहा था जो कुचला नहीं गया था । 1818 में जब मराठा शक्ति क्षीण हो गई तो अंग्रेजों ने यह सोचा कि भारत में स्वतंत्रता युद्ध समाप्त हो गया है परंतु उत्तरी भारत में सिखों की शक्ति जाग  उठी कालांतर में सीख परास्त हुए तो 1857 के विद्रोह की तैयारियां होने लगी और यह विद्रोह इतना अकस्मात और तेजी से हुआ  कि अंग्रेज कांप गए थे उन्होंने कई बार सोचा कि भारत छोड़ दिया जाए ।

जब अंग्रेजों ने पुनः पैर जमाए तो कांग्रेस ने जन्म लिया ।

1885 से ही आप राष्ट्र स्वतंत्रता के लिए पुनः प्रयत्न करने लगा पहले वैधानिक रूप से यह प्रयत्न किए गए और फिर शस्त्रों द्वारा भी अंग्रेजों का प्रतिकार किया जाने लगा । खुदीराम बोस ने 1909 में बम फेंक कर देश की भावना को व्यक्त किया ।


गांधी जी भारत में 1914-15 में आए और इसके 8 साल पूर्व ही भारत के अधिकांश भाग में क्रांतिकारी आंदोलन फैल चुका था स्वतंत्रता संग्राम अभी चिंगारी की भांति सुलग रहा था । गांधी जी और उनके अहिंसा और सत्य के सिद्धांतों से वह आंदोलन दुर्बल होने लगा । किंतु नेताजी सुभाष चंद्र बोस और महाराष्ट्र पंजाब तथा बंगाल के अन्य क्रांतिकारी नेताओं को धन्यवाद देना चाहिए कि लोकमान्य तिलक की मृत्यु के पश्चात गांधी जी का प्रभाव जो जो बढ़ता गया क्रांतिकारी आंदोलन भी प्रखर होते गए । 


   क्रांतिकारी आंदोलन बंगाल और महाराष्ट्र से चलकर पंजाब तक पहुंचा था । मातृभूमि की स्वतंत्रता की वेदी पर सुख सुविधाओं और जीवन की बलि देने वाले वीर सच्चे हुतात्मा थे । उन्हीं के रक्त से भारतीय स्वतंत्रता मंदिर की नींव खींची गई है । लोकमान्य तिलक ने स्वतंत्रता आंदोलन को संगठित किया महात्मा गांधी ने तो बने बनाए का लाभ प्राप्त किया 1909 से 1935 तक विधान में जितने भी सुधार हुए वे क्रांतिकारी आंदोलनों के कारण हुए ।


गांधी जी ने अपने प्रत्येक भाषण और लेख में क्रांतिकारी आंदोलन की निंदा की इसके विपरीत भारत की जनता हृदय से क्रांतिकारियों की सराहना करती रही।

    गांधी जी ने स्वतंत्रता प्राप्ति में शस्त्र प्रयोग की जितना निंदा की उतनी ही क्रांतिकारी आंदोलन लोकप्रिय होता गया । यह बात मार्च 1931 के कराची अधिवेशन से स्पष्ट है , गांधीजी के कठोर विरोध के बावजूद भगत सिंह के उस साहस की प्रशंसा करते हुए एक प्रस्ताव पास किया गया जो उन्होंने 1929 में असेंबली में बम फेंक कर दिखाया था ।