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Wednesday, May 25, 2016

A Train Journey And Two Names To Remember

1990 की घटना..
आसाम से दो सहेलियाँ रेलवे में भर्ती हेतु गुजरात रवाना हुई। रास्ते में एक स्टेशन पर गाडी बदलकर आगे का सफ़र उन्हें तय करना था। जिस प्रकार से ठहराया उसी प्रकार से सफ़र शुरू हुआ लेकिन पहली गाड़ी में कुछ लड़को ने उनसे छेड़-छाड़ की इस वजह से अगली गाड़ी में तो कम से कम सफ़र सुखद हो यह आशा मन में रखकर भगवान से प्रार्थना करते हुए दोनों सहेलियाँ स्टेशन पर उतार गयी और भागते हुए रिजर्वेशन चार्ट तक वे पहुची और चार्ट देखने लगी। चार्ट देख दोनों परेशान और भयभीत हो गयी क्योंकि उनका रिजर्वेशन कन्फर्म नहीं हो पाया.
मायूस और न चाहते उन्होंने नज़दीक खड़े TC से गाड़ी में जगह देने के लिए विनती की TC ने भी गाड़ी आने पर कोशिश करने का आश्वासन दिया....एक दूसरे को सांत्वना देते दोनों गाड़ी का इंतज़ार करने लगी। आख़िरकार गाड़ी आ ही गयी और दोनों जैसे तैसे कर गाड़ी में एक जगह बैठ गए...अब सामने देखा तो क्या?
सामने दो नौजवान युवक बैठे थे। पिछले सफ़र में हुई बदसलूकी कैसे भूल जाती लेकिन अब वहा बैठने के अलावा कोई चारा भी नहीं था क्योंकि उस डिब्बे में कोई और जगह ख़ाली भी नहीं थी। गाडी निकल चुकी थी और दोनों की निगाहें TC को ढूंढ रही थी शायद कोई दूसरी जगह मिल जाये......कुछ समय बाद टिकिट चैक करते हुए TC वहा पहुँच गया और कहने लगा कही जगह नहीं और इस सीट का भी रिजर्वेशन अगले स्टेशन से हो चुका है कृपया आप अगले स्टेशन पर दूसरी जगह देख लीजिये। यह सुनते ही दोनों के पैरो तले जैसे जमीन ही खिसक गयी क्योंकि रात का सफ़र जो था। गाड़ी तेज़ी से आगे बढ़ने लगी। जैसे जैसे अगला स्टेशन पास आने लगा दोनों परेशान होने लगी लेकिन सामने बैठे नौजवान युवक उनकी परेशानी के साथ भय की अवस्था बड़े बारीकी से देख रहे थे जैसे अगला स्टेशन आया दोनो नौजवान उठ खड़े हो गए और चल दिये....अब दोनों लड़कियो ने उनकी जगह पकड़ ली और गाड़ी निकल पड़ी कुछ क्षणों बाद वो नौजवान वापस आये और कुछ कहे बिना नीचे सो गए।दोनों सहेलियाँ यह देख अचम्भित हो गयी और डर भी रही थी जिस प्रकार सुबह के सफ़र में हुआ उसे याद कर खुद की समेटे सहमते सो गयी....सुबह चाय वाले की आवाज़ सुन नींद खुली दोनों ने उन नौजवानों को धन्यवाद कहा तो उनमे से एक नौजवान ने कहा " बेन जी गुजरात में कुछ मदद लगी तो जरुर बताना " ...अब दोनों सहेलियों का उनके बारे में मत बदल चुका था खुद को बिना रोके एक लड़की ने अपनी बुक निकाली और उनसे अपना नाम और संपर्क लिखने को कहा...दोनों ने अपना नाम और पता बुक में लिखा और "हमारा स्टेशन आ गया है" ऐसा कह उतर गए और भीड़ में कही गुम हो गए !

दोनों सहेलियों ने उस बुक में लिखे नाम पढ़े वो नाम थे नरेंद्र मोदी और शंकर सिंग वाघेला......

यह अनुभव आया वह लेखिका फ़िलहाल General Manager of the centre for railway information system Indian railway New Delhi में कार्यरत है और यह लेख
"The Hindu "इस अंग्रेजी पेपर में पेज नं 1 पर
"A train journey and two names to remember " इस नाम से दिनांक 1 जून 2014 को प्रकाशित हुआ है... !
तो क्या आप अब भी ये सोचते है कि हमने गलत प्रधानमन्त्री चुना है??

कोई माने नहीं तो लिंक देखे http://m.thehindu.com/opinion/open-page/a-train-journey-and-two-names-to-remember/article6070562.ece

Sunday, May 15, 2016

मन के अँधेरे कोने से....

हाँ तो भैया जी लो हम फिर बैठ गए अपनी कलम दवात ( मोबाईल) लेकर, क्या पूछे ? आज क्या लिखा है ? अरे भैया अभी तो बैठे है, सोचेंगे... फिर लिखेंगे...

   वो बात क्या है की हमारी लेखनी हमारे दिमाग से ज्यादा तेज चलती है, लेखनी को बस लिखने की पड़ी है जबकि अभी तक सोचा कुछ है नही दिमाग ने की लिखना क्या है, फिर मन के एक कोने से आवाज आई क्या हमेशा दिमाग की लगाए रखते हो कभी हमारी भी सुन लिया करो, तुमरे ही है हम भी हम से ऐसा बैर काहे

  हाँ तो भाई जी अंतत: लेखनी को मौका मिल ही गया चलने का, चलो तो आज मन की निकाल लेता हूँ क्योंकि मस्तिष्क की तो रोज लिखता ही आया हूँ, जानता हूँ अभी कोई पढ़ने वाला नही है लेकिन एक उम्मीद है एक दिन जरूर पढ़ेंगे, नही भी पढ़ेंगे तो मैं तो खुद को पढूंगा ही ऐसे भी खुद के मन की भड़ास निकालने को लिखता हूँ 

खुद की उलझनों में ही उलझी पड़ी है जिंदगी, जब भी अकेला होता हूँ ये उलझने और बढ़ती जाती है क्योंकि काम कुछ होता नही, इसीलिए आज फिर ये तन्हाई मेरे अंदर कहीं छिपे शैतान को जगाने में लगा, मन का शैतान ना जगे इसलिए लेखनी उठा ली, शैतान....
 
वाह क्या बात है आख़िरकार मिल ही गया लिखने को...
आज अपने अंदर छिपे शैतान की बात करता हूँ, बचपन से लेकर आज तक ना जाने कितने अपराध किये है जिन्हें ना मैं खुद भी आजतक माफ़ नही कर पाया हूँ, जब भी मेरे अंदर का शैतान जागता है कुछ ना कुछ गलत करके ही जाता है जिसे किसी से कह सकने की हिम्मत आज तक नही जुटा पाया...
शायद आज भी नही... लेकिन हाँ अब एक विश्वास जरूर आ गया की जल्दी ही अपने अपराधो को मन के सबसे अँधेरे कोने से बाहर निकलूंगा और ज्यादा छिपाने की हिम्मत नही बची अब... जिस जिस का अपराधी हूँ हर एक से माफ़ी माँगूँगा  लेकिन चाहूँगा की माफ़ी नही सजा मिले मेरी हर गलती की...

Friday, May 13, 2016

धोखा : मज़बूरी या आदत (IAS या ISI)

UPSC की IAS परीक्षा में स्थान पाए जालना के अंसार शेख ने कहा है कि पुणे में मकान लेने के लिए उसे अपना नाम शुभम रखना पड़ा,
लेकिन अब अंसार शेख के इस बयान पर कुछ स्वाभाविक सवाल उठते हैं... 

१) अगर उसने मकान लेने के लिए "शुभम" नाम रखा, तो शुभम नाम का आईडी प्रूफ उसने कहाँ से बनवाया, ऐसा कोई फर्जी आईडी प्रूफ बनाने में उसे किसने मदद की??

२) यदि अंसार शेख को हिंदुओं की बस्ती में मकान नहीं मिल रहे थे, तो क्या पुणे के सारे मुसलमान मर गए थे? या पुणे में मुसलमान रहते ही नहीं हैं? या फिर मुसलमानों के मोहल्ले रहने और पढ़ाई के माहौल लायक नहीं होते.

३) क्या अंसार शेख की नीयत में खोट था, जो वह नाम और पहचान बदलकर पुणे के हिन्दू कालोनी में रह रहा था??

४) पुणे पुलिस की कर्मठता और जिस व्यक्ति ने अंसार शेख को मकान दिया, उसकी जाँच और पूछताछ क्यों नहीं की गई??
चलो ये सब तो वे प्रश्न हुए जो उसके बयां के साथ हर किसी के दिमाग में आए होने, अब वजहों का थोडा विश्लेषण करते है
१) उसके पुरखों और वर्तमान पीढ़ी ने इतना अविश्वास कमाया कि उसे शुभम होना पड़ा,अपने विश्वासघातों का इतिहास एक और धोखे से छुपा के एक विश्वासघात की गिनती और बढ़ा ली तुमने अंसार!! यही धोखा तुम्हारी पहचान है।

जब इस पहचान से छुपना चाहोगे, हमारे नामों में, हमारे धर्म में और हमारी पहचान में ही शरण लोगे, क्योंकि शरण सिर्फ विश्वास ही दे सकता है जो तुम्हारे पास है नहीं और कभी होगा भी नहीं।

और अंतिम बात... जिसकी शुरुआत ही ऐसे "फर्जीवाड़े" से हुई हो, वह किस टाईप का IAS अधिकारी बनेगा...

Thursday, May 5, 2016

उलझन

आज मन बड़ा ही व्यथित है दिमाग की उलझने बढ़ती ही जा रही है मन में अजीब सी पीड़ा है एक गुस्सा है जो पल पल बढ़ रहा है एक पछतावा है अपनी हरकतों का लेकिन जिसकी चाह में ये सब पाला है वो वो तो दूर दूर तक दिखता ही नही,
  सब ने चाहा था सब ने समझाया था लेकिन मैं ना तब निश्चय कर पाया था ना आज कर पा रहा हूँ, बस उसे पाने की एक जिद थी जो मना करने पर बढ़ती जाती थी, दिमाग तो कभी मेरी इस जिद के पक्ष में था ही नही लेकिन मन इन सब बातो को कहाँ समझता है वो तो अपने ही सपने बुनने में था, उम्मीदों का एक शहर बसाए हुए था कब वो सपना एक एक करके बिखरते गए हर झटका अब अनचाही याद ताजा कर जा रहा है हर अच्छे बुरे छोटे बड़े अपने पराये पसंद नापसंद इंसान की एक एक बात सच होती लग रही है
समझ नही आ रहा मैं सच में इस दलदल में फंस गया हूँ या अभी भी ये सब मेरे मन का वहम है कहीं ऐसा तो नही सब कुछ ठीक है और मैं अवसाद में घिरा जा रहा हूँ कोई मुझे इस उलझन से बचाओ

Sunday, May 1, 2016

मजदूर दिवस या मजबूर दिवस

आज एक मई है अंतराष्ट्रीय मजदुर दिवस, सुबह से काफी कुछ देखा, सोशल मीडिया पर काफी लोग मजदुर दिवस की बधाइयां दे रहे है, मैं अभी तक ये ही सोच रहा हूँ कितने मजदूरो को पता है की आज उनका दिन है, आज उनके नाम लोग लोग लेख लिखेंगे कोई भला मानुस उनका मुह भी मीठा कराएगा इसमें मुझे संदेह है, हाँ कहीं कोई सफ़ेद कुर्ते पजामे पहने नेता जी मजदूरो के सम्मान में दो शब्द कह कर अपने कुर्ते की चमक बढ़ाए रखने के लिए बजट की भी घोषणा कर सकते है लेकिन क्या वो बजट किसी मजदुर तक पहुंचेगा ये बताने की शायद जरुरत नही है,
मैं सोच रहा हूँ की बधाई दूं तो किस मुँह से दूँ, सोच रहा हूँ यदि वास्तविक जीवन में किसी मजदुर को मजदुर होने की बधाई दूं तो कैसा रहेगा, सोच कर ही दिमाग के तोते उड़ जा रहे है, मजदुर होने की बधाई ????? क्योंकि मजदुर कोई शौकिया नही होता, सही मायने में वो मजदुर नही मजबूर होते है नियति के सामने, क्योंकि 45℃ की चिलचिलाती धुप में शारीरिक श्रम  करना शायद ही किसी को पसंद आए, उनका मन भी होगा की जिस  शानदार  बिल्डिंग को बनाने के लिए वो अपना खून पसीना जला रहा है कभी उसे भी उसमे रहने का मौका मिले, कहीं कोई लाचार माँ अपनी कलेजे के टुकड़े को लटकाए ईंट ढो रही है कहीं कोई मासूम अपने वजन से ज्यादा बोझा उठाए चला जा रहा है और हम उन्हें बधाई दे रहे है मजदुर दिवस की उन्हें बधाई की नही एक अदद जिंदगी की जरुरत है, माफ़ी चाहूँगा मैं किसी मजदुर को उसके मजबूर होने की बधाई नही दे पाउँगा
बधाई नही दे सकता लेकिन उनकी जिजीविषा को सलाम जरूर करूँगा, उनसे माफ़ी जरूर माँगना चाहूँगा की जिसके वो हक़दार हम उन्हें वो सम्मान नही दे पाए, एक घरौंदा नही दे पाए, उनके बच्चों को एक स्कूल नही दे पाए, दो समय का भरपेट भोजन नही दे पाए, उनकी पीढ़ियों को इस मजदूरी/मज़बूरी से निकलने का रास्ता नही दे पाए
सोचता हूँ यहाँ ऎसी में बैठ कर फोन पर बड़ी बड़ी बाते लिखने से थोडा आगे बढू घर से निकल कर किसी कंस्ट्रक्शन साईट पर जाकर उनके काम में थोडा हाथ बटाऊ, उनकी परेशानियां सुनु, गर्मी से बचने के लिए फ्रिज ना सही एक ठन्डे पानी के मटके का ही इंतज़ाम कर पाऊ, कम से कम एक दिन उन्हें अच्छे से भर पेट खाना खिला पाऊ, उनके बूढ़े माँ बाबू, बीवी छोटे बच्चों से मिलवा पाऊ, लेकिन शायद मुझ में अभी वो जज्बा नही की उनके लिए घर से निकल पाऊँ....
काश कभी उनका सामना करने की हिम्मत जुटा पाऊँ उनसे नजरे मिला पाऊँ....