आज मन बड़ा ही व्यथित है दिमाग की उलझने बढ़ती ही जा रही है मन में अजीब सी पीड़ा है एक गुस्सा है जो पल पल बढ़ रहा है एक पछतावा है अपनी हरकतों का लेकिन जिसकी चाह में ये सब पाला है वो वो तो दूर दूर तक दिखता ही नही,
सब ने चाहा था सब ने समझाया था लेकिन मैं ना तब निश्चय कर पाया था ना आज कर पा रहा हूँ, बस उसे पाने की एक जिद थी जो मना करने पर बढ़ती जाती थी, दिमाग तो कभी मेरी इस जिद के पक्ष में था ही नही लेकिन मन इन सब बातो को कहाँ समझता है वो तो अपने ही सपने बुनने में था, उम्मीदों का एक शहर बसाए हुए था कब वो सपना एक एक करके बिखरते गए हर झटका अब अनचाही याद ताजा कर जा रहा है हर अच्छे बुरे छोटे बड़े अपने पराये पसंद नापसंद इंसान की एक एक बात सच होती लग रही है
समझ नही आ रहा मैं सच में इस दलदल में फंस गया हूँ या अभी भी ये सब मेरे मन का वहम है कहीं ऐसा तो नही सब कुछ ठीक है और मैं अवसाद में घिरा जा रहा हूँ कोई मुझे इस उलझन से बचाओ
एक आम लेकिन खास भारतीय नागरिक के अंतर्मन से निकले शब्द है, किसी अख़बार या टीवी शो पर नही मिलेंगे
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Thursday, May 5, 2016
उलझन
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