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Thursday, May 5, 2016

उलझन

आज मन बड़ा ही व्यथित है दिमाग की उलझने बढ़ती ही जा रही है मन में अजीब सी पीड़ा है एक गुस्सा है जो पल पल बढ़ रहा है एक पछतावा है अपनी हरकतों का लेकिन जिसकी चाह में ये सब पाला है वो वो तो दूर दूर तक दिखता ही नही,
  सब ने चाहा था सब ने समझाया था लेकिन मैं ना तब निश्चय कर पाया था ना आज कर पा रहा हूँ, बस उसे पाने की एक जिद थी जो मना करने पर बढ़ती जाती थी, दिमाग तो कभी मेरी इस जिद के पक्ष में था ही नही लेकिन मन इन सब बातो को कहाँ समझता है वो तो अपने ही सपने बुनने में था, उम्मीदों का एक शहर बसाए हुए था कब वो सपना एक एक करके बिखरते गए हर झटका अब अनचाही याद ताजा कर जा रहा है हर अच्छे बुरे छोटे बड़े अपने पराये पसंद नापसंद इंसान की एक एक बात सच होती लग रही है
समझ नही आ रहा मैं सच में इस दलदल में फंस गया हूँ या अभी भी ये सब मेरे मन का वहम है कहीं ऐसा तो नही सब कुछ ठीक है और मैं अवसाद में घिरा जा रहा हूँ कोई मुझे इस उलझन से बचाओ

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