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Friday, August 25, 2017

अब तो जागो मोहन प्यारे

कोई ये बताएगा मारने वाले आम नागरिक थे या अंधे अनुयायी,

यदि हम खुद सरकार से यही चाहते है कि दंगाइयों से सख्ती से निपटा जाए तो इन अंधे दंगाई अनुयाइयों की मौत पर इतना बवाल क्यो ? या हम ये चाहते थे कि वो अपने साथियों की भीड़ भगदड़ में ना मरकर पुलिस की गोलियों लाठी डंडों से मरते ?

वास्तव में ये लोग इसी लायक थे, इन्होंने अपने सोचने समझने की शक्ति, अपना विवेक सब कुछ एक  अपराधी को सौप रखा था, सरकार दंगे रोकने में नाकाम रही इसमे कोई संशय नही लेकिन धारा १४४ लागू होने के बावजूद इतनी भारी संख्या में लोगो का जुटना वन लोगो की मानसिक स्थिति का परिचायक है, वे अपना विवेक खो चुके थे, न्यायपालिका ने अपना काम किया फैसला सुना दिया तैयारी करने की चेतावनी दे दी, लेकिन क्या इस बवाल को किसी भी किसी मे तरीके से मौजूदा स्थिति में रोकना संभव था,

जो पंचकूला में हुआ यदि वहाँ प्रशाशन लोगो को किसी भी तरह रुकने से रोक भी लेता तो ये सब अलग अलग शहरों में होता, अलग अलग शहरों में हुई छिटपुट आगजनी तोड़फोड़ इसकी बानगी भर है, जो हालात पंचकूला के हुए वो हर उस शहर के होते जहां इनका गढ़ है, यदि आपने अपना विवेक नही खोया है तो ये आप आसानी से समझ सकते है, जो गुस्सा अभी आपका सरकार की नाकामी और इस बलात्कारी और इसके अनुयाइयों पर है वो जायज है परंतु क्षणिक है,

इन दंगों को रोकने के लिए उन सभी शहरों को एक सप्ताह पहले से पूरी तरह बंद करना पड़ता जहाँ भी तोड़फोड़ आगजनी हुई है, क्या ये संभव था ? मीडिया में इसकी खबर ना आने देना था क्या ये संभव था ? संभव या संभव तो बाद की बात है क्या ये जायज था कि एक अपराधी और उसके अनुयाइयों के डर से कई शहरों के राज्यो को पूरी तरह बंधक बना दिया जाए, सम्भव था तो बस इतना कि इस नुकसान को थोड़ा कम किया जा सकता था,

लेकिन जो भी हुआ मुझे खुशी है कि एक अपराधी को उसके अपराध की सजा मिली, उस भीड़ में मरने वाले दंगाइयों से मुझे कोई हमदर्दी नही है वो लोग वहाँ मरने मारने के लिए एकत्र हुए थे तो उन्हें उनका अंजाम मिल गया उनके लिए कैसा दुख मनाना जिनकी आत्मा, विवेक पहले ही मर चुका है,

बाकी आने वाले समय, सरकारों  और न्यायालय के लिए सीख है ये घटना, अब ये समझना ही होगा इस एक सौ तीस करोड़ की आबादी को संभालने के अधिकारों का ढोल पीटने की नही अपितु दायित्वों का एहसास कराने का बिगुल बजाने की आवश्यता है,

ये जो हमारे माननीय न्यायालय और सरकारे कभी धर्म की आजादी कभी अभिव्यक्ति की आजादी कभी फलानी आजादी कभी ढिकानी आजादी, कभी मानव अधिकार कभी निजता का अधिकार, कभी नंगे घूमने का अधिकार कभी सडको पर हवस दिखाने का अधिकार की पीपनी की बजाती रहती है ये उसी का नतीजा है, सिस्टम को नपुंसक बना कर रख दिया है और फिर उम्मीद करते है रामराज आएगा,

ये ही जानना है ना पुलिस ने ढिलाई क्यो बरती, भीड़ क्यो जमा होने दी, मैं बताता हूँ

वहाँ जो पुलिस वाले ड्यूटी कर रहे थे उनमें से कुछ के परिवार रिश्तेदार उस बाबा के भक्त बने बैठे होंगे, कुछ कोनों में खड़े हुए दारु पी रहे होंगे ड्यूटी के समय, कुछ को इस भीड़ को देख कर मजा रहा होगा, और ज्यादातर वहां बस सरकारी आदेशो को हवा मानकर पिकनिक मना रहे होंगे, कुछ अपना समय पूरा कर रहे होंगे कि आखिर अब ये बला टलेगी, बाकी जो थोड़े बहुत जिम्मेदार बचे होंगे वो खुद को परिस्थिति के सामने असहाय महसूस कर रहे होंगे,  सरकारों नेताओ को दोष गाली देते समय ये भी याद रखो की सरकार आती जाती रहती है लेकिन सिस्टम हमेशा लगभग एक जैसा ही चलता है सरकार आएगी मंत्री बदलेंगे लेकिन वास्तव में बदलता कुछ नही, अय्यास अधिकारी भी वहीं रहते है, कामचोर कर्मचारी भी वही रहते है, और हाँ पैकेट लेने वाले मंत्री साहब का पता भी वही रहता है बस ऊपर वाली लाइन में नाम बदल जाता है खद्दर पहने बैठा वो जमूरा कभी अमर बन जाता है कभी अकबर बन जाता है कभी एंथोनी बन जाता है

गुस्सा अभी बाकी है मेरे दोस्त
To be continued....

अतुल शर्मा - Atul Sharma

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